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________________ जैसा करोगे वैसा भरोगे प्रस्तुति-सुशीला पाटनी प्रवृत्ति शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की होती है। शुभ | लोगों की संख्या ज्यादा है, पाप से भय खाने वालों की अपेक्षा । प्रवृत्ति हमारे जीवन के शुभ का कारण बनती है, अशुभ प्रवृत्ति से आचार्य कहते हैं पाप से भय खाओगे तो तुम्हारे अंदर दया और जीवन का पतन होता है। शुभ प्रवृत्ति पुण्य का सेतु है, अशुभ करुणा उत्पन्न होगी। पाप करके भय खाना तो कायरता है, पाप से प्रवृत्ति से पाप बँधता है। यह क्रम चौबीस घंटे चलता है। एक क्षण भय खाओ तुम्हारा जीवन सुधरेगा, तुम्हारी आत्मा का उद्धार भी ऐसा नहीं है जिसमें कर्म या बन्ध नहीं होता है। प्रवृत्ति के | होगा। एक आचार्य ने तीन प्रकार की वृत्ति बताई, अलग-अलग अनुरूप कर्म बँधते हैं और बंधन के अनुरूप उनका फल मिलता | वृत्ति के लोग होते हैं, लिखा है : पापं समाचरति वीतघृणो जघन्यः किसी व्यक्ति के पास सब कुछ है अच्छा शरीर, रूप, प्राप्यापदं सघृण एव हि मन्दबुद्धिः। संपन्नता, बुद्धि और अच्छे संस्कार हैं, किसी के पास कुछ भी नहीं प्राणात्ययेपि न हि साधुजनः स्ववृत्तं है। कुछ मनुष्य आप लोगों को ऐसे भी देखने को मिलेंगे जिनके - बेला समुद्र इन लंघयितुं समर्थः॥ पैदा होते ही माँ-बाप का साया उठ गया और जिनके हाथ -पैर पाप करने के बाद भी जिन के मन में पाप के प्रति किसी काट दिये गये और रोज सड़कों पर भीख माँगने के लिए मजबूर | प्रकार की घृणा या संकोच नहीं होता, वे लोग जघन्य हैं। ऐसे किया जा रहा है। वे भी मनुष्य हैं, आप भी मनुष्य हैं। हम सब लोग बेधड़क पाप करते रहते हैं, इनके जीवन से पाप छूट नहीं मनुष्य हैं जो अपना काम कर रहे हैं। ऐसे भी मनुष्य देखने को सकता। जो पाप को पाप मानने को तैयार नहीं उनके जीवन से मिलेंगे कि आदमी होकर भी पशुओं का काम कर रहे हैं। पाप छूट कैसे सकता है? जैसे कसाईखानों में जो पशुओं को संसार में जितने भी व्यक्ति हैं, कोई भी पाप का फल नहीं | काटते है उनको ज्यादा पैसे नहीं मिलते, मात्र 15-20 रुपये में चाहता। हर व्यक्ति यह जानता है कि पाप का फल नरक है। नरक एक-एक पशु को हलाल किया जाता है। पर वह उन्हें ऐसे काटते जाना कोई भी पसंद नहीं करता। नरक की बात स्वप्न में भी नहीं | हैं जैसे गाजर-मूली छील रहे हों। सोचता। शायद इसलिए मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति के नाम के आगे दूसरी प्रकृति के वे लोग होते हैं जो पाप करते नहीं है पाप स्वर्गीय जोड़ा जाता है। करना पड़ता है, विवश होकर पाप करते हैं। जैसे किसी गृहस्थ पुण्यस्य फल मिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवः। को गृहस्थी में पाप करना पड़ता है। पाप उसकी विवशता है। ऐसे फलं पापस्य नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः॥ लोग पाप करने के बाद सदा अपराध के बोध से भरे रहते हैं। ऐसे मनुष्य पुण्य का फल तो चाहता है, पर पुण्य करना नहीं | लोग पाप से बहुत जल्दी ही मुक्त हो सकते हैं। चाहता। पाप का फल नहीं चाहता लेकिन दिन-रात पाप में लगा उत्तम पुरुष तो साधुजन की तरह होते हैं कि "प्राण जाए रहता है। यह कैसी बिडम्बना है। यह तो "पुण्य की चाह और पर प्रण न जाए" अपने चरित्र से स्खलित नहीं होते। जैसे समुद्र पाप की राह" वाली बात है। पाप के बीज बोकर कोई भी पुण्य के अंदर उत्ताल तरगें उठती रहती हैं फिर भी समुद्र अपने तट की की फसल नहीं काट सकता। व्यक्ति इस बात को अच्छी तरह सीमाओं को नहीं छोड़ता। उसी प्रकार जो उत्तम पुरुष होते हैं, जानता है, पर मानता नहीं है। वह हमेशा पाप का काम करता है उनके अंदर आवेग संवेग की कितनी लहरें क्यों न उत्पन्न हो जाएँ और पुण्य के गीत गाता है। पाप का काम और पुण्य का नाम कभी वे अपनी मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं होने देते। ऐसे पुरुष अपने भी हमारे जीवन का उद्धार नहीं कर सकता। जीवन का विकास करते हैं। ऐसे व्यक्ति के जीवन में कभी पाप आचार्यों ने कहा है "नाभुक्तंक्षीयते कर्म" तुमने अगर | विकसित नहीं हो पाता, हम कम-से-कम पाप से घृणा करने की कोई पाप किया है तो बिना भोगे वह नष्ट नहीं होता। कहावत है- कोशिश करें, जब तक पाप से घृणा नहीं होती, जब तक पाप से "पाप और पारा कभी पचता नहीं।" आदमी पाप करके दुनिया भय नहीं होता, तब तक वह छूटता नहीं है। की आँखों में धूल झोंक सकता है, पर कर्म की आँख में कभी धूल बड़ी गहरी भावनाएँ छुपी हुई हैं इसमें। अगर आदमी इन नहीं झोंक सकता। हो सकता है दुनिया के कानून में कोई अपराधी तीना बातों का हमेशा ध्यान रखे, तो अनर्थ से बच सकता है। सजा से बच जाये और निरपराध फँस जाय, क्योंकि आज का | कभी भी हमारी मृत्यु हो सकती है। एक-एक कदम पर हमसे कानून अंधा कानून है। दुनिया के अंधे कानून में पाप करके | पाप होता है, प्रत्येक कदम गर्त में ले जाने वाला है। और विषयों आदमी बच सकता है पर कुदरत के कानून में कोई बच नहीं की तरफ तुमने देखा कि उनका विष व्याप्त हो गया। विषयों की सकता। कुदरत का कानून अंधा नहीं है। वहाँ तो मनुष्य जैसा | आसक्ति से बचना चाहते हो तो यह समझो कि उनमें जहर है, करता है उसे वैसा फल मिलता है। भले ही जहर मीठा हो पर जहर तो जहर ही होता है। ऐसा भय आचार्य कहते हैं कि भय खाने की कोशिश करो। जब जागृत हो जाए तो आसक्ति नहीं होती, आसक्ति से बचने के लिए तुम भय खाआग तभा पाप स बच सकाग। दा तरह क लोग हात | भी भय चाहिए, तभी पाप की परिणति छूटेगी। हैं, कुछ लोग ऐसे होते हैं जो पाप करके भयभीत होते हैं, कुछ आर.के.मार्बल्स लि., पाप से भयभीत होते हैं। आजकल पाप करके भय खाने वाले मदनगंज-किशनगढ़ 26 अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित भी हमारे जीवन में कहा है वह नष्ट नहीं पाप करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524267
Book TitleJinabhashita 2002 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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