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भगवान् महावीर का जन्म विदेह-देश के कुण्डपुर या कुण्डलपुर | यह आश्चर्य का विषय है कि कुछ सुयोग्य विद्वान् 14वी में हुआ था, यही सबसे बड़ा एवं सर्वसम्मत प्रमाण भी सिद्ध हो | सदी के यति मदनकीर्ति या 20वीं सदी की प्रकाशित दिल्ली जैन गया, जिसके अनुसार भगवान् महावीर का जन्म विदेह में स्थित | डायरेक्टरी या 1998 में प्रकाशित भारत जैन तीर्थदर्शन में वैशालीकुण्डपुर या कुण्डलपुर में ही हुआ था, अन्यत्र नहीं। फिर भी कुण्डपुर का उल्लेख न होने से अपने पक्ष के समर्थन का सबल किसी विशेष दृष्टिकोण से विशेष वर्ग द्वारा इस दीर्घकालीन मान्यता प्रमाण तो मानते हैं, किन्तु आचार्य पूज्यपाद एवं गुणभद्रादि के को नकारा जाने लगा है।
विदेह-स्थित कुण्डलपुर सम्बन्धी उल्लेख को प्रामाणिक नहीं मानना विदेह-देश की भौगोलिक स्थिति युगों-युगों से सुनिश्चित | चाहते। है, और अधिक नहीं, तो भी पिछले लगभग 3 हजार वर्षों से तो । एक ओर तो वे श्वेताम्बर या बौद्ध-साहित्य को मान्यता वह गंगा नदी के उत्तर में ही स्थित है, जिसके साक्ष्य जैन-जैनेतर | भी नहीं देना चाहते और दूसरी ओर वे अपने पक्ष के समर्थन में सभी साहित्य में उपलब्ध हैं, जब कि गंगा-नदी के दक्षिण में | भगवतीसूत्र, समवायांग-सूत्र आवश्यक-नियुक्ति के उद्धरण भी मगध देश स्थित है। इस भूगोल में भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं | प्रस्तुत कर रहे हैं। एक ओर तो जैनेतर विद्वानों को वे मान्यता नहीं हुआ है। मगध सम्राट श्रेणिक एवं अजातशत्रु के इतिवृत्त से यह | देते, जबकि दूसरी ओर अपने पक्ष के समर्थन में उनकी मान्यताओं भी सुनिश्चित है कि गंगा के आर-पार स्थित विदेह एवं मगध | की सराहना भी कर रहे हैं। कैसा विरोधाभास है? परस्पर में विरोधी साम्राज्य रहे।
जिन हर्मन याकोवी प्रभृति पाश्चात्य तथा डॉ. प्राणनाथ, अब यदि मगधदेशान्तर्गत नालन्दा वाले कुण्डलपुर को | डॉ. आर. पी. चंदा प्रभृति प्राच्य इतिहासकारों ने जैनधर्म को हिन्दू भगवान् महावीर की जन्मस्थली मान लिया जाय, तो फिर यही | या बौद्धधर्म की शाखा मानने वालों के कुतर्कों का निर्भीकता के मानना पड़ेगा कि भारत की चारों दिशाओं के महान साधक आचार्य | साथ पुरजोर खण्डन कर उसे प्राचीनतम एवं स्वतन्त्र धर्म घोषित पूज्यपाद (5वीं शती), आचार्य जिनसेन (8वीं शती), आचार्य किया और हड़प्पा-संस्कृति को उससे प्रभावित बतलाया, तब गुणभद्र (9वीं शती), आचार्य असग (10 वीं शती), आचार्य उसे तो मान्यता दे दी गई, किन्तु अब उन्हीं अथवा उनकी परम्परा पद्मकीर्ति (10वीं शती), आचार्य दामनन्दि (11 वीं शती), विबुध | के विद्वानों के द्वारा अन्वेषित और घोषित विदेह-कुण्डलपुर का श्रीधर (12वीं शती), पं. आशाधार (13वीं शती), महाकवि | | विरोध भी किया जा रहा है। यहाँ तक कि उन्हें अज्ञानी भी कहा सकलकीर्ति, (15वीं शती), महाकवि रइधू (16वीं शती), महाकवि जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि उनकी बातों को मानने से पद्म (16वीं शती) एवं कवि धर्मचन्द्र (17वीं शती), आदि- हम कुपथगामी हो जावेंगे। एक निष्पक्ष इतिहासकार के लिये ऐसा आदि ने भगवान् महावीर की जन्मभूमि विदेह स्थित कुण्डलपुर | कहना कहाँ तक उचित है? (या कुण्डपुर) को जो बतलाया है, तद्विषयक उनका वह कथन ये आदरणीय सुयोग्य विद्वजन भाषा-विज्ञान की दृष्टि से क्या भ्रामक अथवा मिथ्या है? 20वीं शती के प्रारंभ से ही देश- | कोटिग्राम का परिवर्तन कुण्डग्राम में हो पाना असम्भव मानते हैं। विदेश के दर्जनों प्राच्य विद्याविदों एवं पुरातत्त्व-वेत्ताओं ने भी | यदि उनकी यही बात युक्तिसंगत है, तो फिर चन्द्रगुप्त से सेंड्रोकोट्टोस, निष्पक्ष एवं दीर्घकाल तक अथक परिश्रम पर विविध जैन-जैनेतर | सूतालूटी से कलकत्ता या कोलाकात्ता, अरस्तु से अरिस्टोटल, साक्ष्यों पर विदेह स्थित कुण्डलपुर को ही भगवान् महावीर की अलेग्जेंडर से सिकन्दर, इजिप्ट से मिश्र, उच्छ्रकल्प से ऊँचेहरा, जन्मस्थली सिद्ध किया है, तो क्या उनकी वे खोजें भी अविश्वसनीय, | किल्ली से दिल्ली, कोटिशिला से कोल्हुआ, बकासुर से बकरस, अनादरणीय अथवा मिथ्या हैं?
रतिधव से रइधू, त्यागीवास से चाईवासा, कलिंग से उड़ीसा, किसी भी देश या नगर या साहित्य का प्रामाणिक इतिहास चन्द्रवाडपट्टन के चंदवार, गोपाचल से ग्वालियर, आरामनगर से मात्र कुछ दिनों या महिनों में तैयार नहीं हो जाता। वह दीर्घकालीन आरा, कुसुमपुर अथवा पाटलिपुत्र से पटना, सिंहल से श्रीलंका विविध प्रमाणों के संग्रह एवं उनके तुलनात्मक अध्ययन से ही तथा सिलोन के परिवर्तित नाम भी सही नहीं माने जाने चाहिये संभव है। विदेह-कुण्डलपुर के विस्मृत इतिहास की खोज में | क्योंकि उन समादरणीय विद्वानों की दृष्टि से Proper Noun में सदियों का समय लगा है। निष्पक्ष इतिहासकारों ने विविध तथ्यों | परिवर्तन ही नहीं हो सकता। का संग्रह कर जब उनका तुलनात्मक अध्ययन कर उसे प्रस्तुत | ईसा-पूर्व दूसरी सदी में कलिंग के जैन चक्रवर्ती सम्राट किया है, तब फिर उसमें अप्रामाणिकता का प्रश्न ही कहाँ उठता | खारवेल का उल्लेख यदि जैन साहित्य में कहीं नहीं मिलता और है? और पूर्वोक्त दिगम्बर जैनाचार्यों ने जब विदेह स्थित कुण्डलपुर | अजैन इतिहासकारों ने उसके शिलालेख की अथक खोज कर स्पष्ट ही घोषित किया है तो फिर मगध का कुण्डलपुर महावीर | सम्राट खारवेल के जैनधर्म सम्बन्धी बहुआयामी कार्य-कलापों की जन्मभूमि कैसे हो सकता है? फिर भी यदि वह परिवर्तन की विस्तृत चर्चा की और इसके साथ ही अन्धकारयुगीन प्राच्य किया जाता है, तो गंगा के उत्तर में स्थित वैदेही सीता की भूमि- भारतीय इतिहास के लेखन के लिये डॉ. आर.डी. बनर्जी ने उसे मिथिला (विदेह) आदि को भी मगध में मान लेना पड़ेगा या उन | प्रथम प्रकाश-द्वार घोषित किया, तो क्या इस गहन खोज को भी तीर्थंकरों-मल्लि एवं नमि की जन्मभूमि मिथिला-विदेह को भी । केवल इसीलिये नकार दिया जाय कि प्राचीन जैन साहित्य में मगध के अन्तर्गत मानना पड़ेगा।
उसका कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता और वह केवल जैनेतर 20 अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित
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