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________________ काययोग को आस्रवपन से रहित कर दिया है, क्योंकि काय आदि । प्रमाण मिलते हैं। यहाँ कुछ प्रमाण दे रहे हैं:तीन प्रकार की वर्गणाओं का आलम्बन ले रहे ही योग को आस्रव 1. श्री सावयधम्म दोहा (रचयिता-आ.देवसेन, श्रावकाचार कहा है और वह योग दंड आदि अवस्थाओं में उन वर्गणाओं का संग्रह भाग-1, सोलापुर से प्रकाशित) की गाथा नं. 189,196 में आलम्बन नहीं करता। तो फिर केवलियों के समुद्घात काल में | इस प्रकार कहा है:साता वेदनीय का बंध किस प्रकार होता है? गृहीत हो चुकी धूवउ खेबई जिणवरहं तसु पसरइ सोहग्ग। कायवर्गणा को निमित्त पाकर आत्मप्रदेशों के परिस्पंदन का वहाँ इत्थु म कायउ भंति करि तें पडिवद्वउ सग्गु ।। 189॥ सद्भाव है जो कि उस बंध का निमित्त है। अर्थ- जो जिनवर के आगे धूप खेता है, उसका सौभाग्य भावार्थ- केवली समुद्घात के योग को आस्रव नहीं कहा | फैलता है और उसने स्वर्ग को बाँध लिया, इसमें कुछ भी भ्रांति जा सकता है, क्योंकि वहाँ काय-वचन और मन का अवलम्बन मत कर ॥ 189 ।। पाकर आत्मा का प्रदेश प्रतिस्पंद नहीं हुआ है। आरत्तिउ दिण्णउ जिणहं उज्जोयइ सम्तत्तु । जिज्ञासा-साधु संघ के चार भेद बताइये? भुवणुब्भासइ सुरगिरिहिं सुरु पयाहिण दिंतु। 196॥ समाधान-स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा (अगास प्रकाशन) अर्थ-जो जिनदेव की आरती करता है, उसके सम्यक्त्व गाथा-391 की टीका में पृष्ठ 290 पर इस प्रकार कहा है का उद्योत होता है। सुरगिरि (सुमेरु) की प्रदक्षिणा देता हुआ सूर्य साधु संघ चार प्रकार का होता है-1. सामान्य साधुओं को समस्त भुवन को प्रकाशित करता है 196 ॥ अनगार कहते हैं। 2. उपशम अथवा क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ 2. श्री प्रश्नोत्तर श्रावकाचार (रचयिता-आ.श्री सकलकीर्ति, साधुओं को यति कहते हैं। 3. अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और श्रावकाचार संग्रह भाग-2, सोलापुर प्रकाशन। पृष्ठ 379, श्लोक केवलज्ञानी साधुओं को मुनि कहते हैं। 4.ऋद्धिधारी साधुओं को नं. 201, 202 में इस प्रकार कहा है:ऋषि कहते हैं। ऋषियों के भी चार भेद बताए हैं। 1. विक्रिया अभ्यर्चयन्ति ये दीपैः सत्कर्पूरघृतादिजैः और अक्षीणऋद्धि के धारियों को राजऋषि कहते हैं। 2. बुद्धि और अर्हन्तं केवलज्ञानं ते भजन्ते सुदृष्टयः ।। 201॥ औषधि ऋद्धिधारियों को ब्रह्मऋषि कहते हैं। 3. आकाशगामिनी अर्थ-जो सम्यग्दृष्टि पुरुष कपूर और घी के बने हुए दीपक ऋद्धिधारकों को देवऋषि कहते हैं। 4. केवलज्ञान महान् ऋद्धि के | से भगवान् की पूजा करते हैं, वे केवलज्ञान को अवश्य प्राप्त करते धारकों को परमऋषि कहते हैं। हैं ।। 201॥ जिज्ञासा- ढाई द्वीप में कितने म्लेच्छ खण्ड हैं? चन्दनागुरु कर्पूरसद्व्यादि दहन्ति ये। समाधान- जम्बूद्वीप के भरत और ऐरावत क्षेत्र में 5-5 जिनाग्रे कर्मकाष्ठानों भस्मी भावं श्रयन्ति ते ।। 202 ।। म्लेच्छ खण्ड हैं। ढाई द्वीप में कुल 5 भरत और 5 ऐरावत क्षेत्र हैं, अर्थ- जो भव्य भगवान् के सामने चन्दन, अगुरु, कपूर एक क्षेत्र संबंधी 5 म्लेच्छ खण्ड लेने से सम्पूर्ण भरत और ऐरावत | आदि श्रेष्ठ द्रव्यों को दहन करते हैं, इनकी धूप बनाकर खेते हैं वे क्षेत्रों के 10x5=50 म्लेच्छ खण्ड हुए। कर्मरूपी ईंधन को भस्म कर डालते हैं ।। 202॥ ढाई द्वीप में कुल 5 विदेह हैं। अर्थात् जम्बूद्वीप में एक चन्द्रोपकमहाघण्टाचामरध्वजदीपकान् । विदेह, धातकीखण्ड में 2 तथा पुष्करार्ध में 2-5 विदेह हुए। झल्लरी ताल कंसाल भृडारकलशादिकान्।। 174॥ प्रत्येक विदेह में 32-32 नगरियाँ हुईं। प्रत्येक नगरी की रचना दत्वा चान्यानि साराणि धर्मोपकरणानि वै। भरत क्षेत्र के समान है अर्थात् प्रत्येक नगरी में एक आर्य खण्ड अर्जयन्ति बुधा धर्म धर्माधारे जिनालये ॥ 175॥ और 5 म्लेच्छ खण्ड हैं। इस प्रकार 5 विदेह क्षेत्रों की 160 अर्थ- विद्वान लोग धर्म के आधारभूत जिनभवन में चन्दोवा, नगरियों में 160x5-800 म्लेच्छ खण्ड हुए। इनमें भरत, ऐरावत घण्टा, चमर,दीपक, झल्लरी, ताल, कंसाल,भृडार कलश, आदि उत्तमक्षेत्र के 50 म्लेच्छ खण्ड मिलाने पर पूरे ढाई द्वीप में सम्पूर्ण खण्डों | उत्तम धर्मोपकरण देकर महापुण्य सम्पादन करते हैं। 174-5॥ की संख्या 850 होती है। उपरोक्त ग्रंथ में लिखा है कि विद्वान् लोग मंदिर में दीपक शंकाकार- डॉ. रमेश जैन, खनियांधाना लेकर महान् पुण्य का संचय करते हैं। दीपक का प्रयोग आरती के जिज्ञासा- आजकल कुछ लोग दीपक से आरती करने अलावा अन्य किसी कार्य में नहीं होता, फिर आरती का निषेध एवं मंदिर जी में धूप खेने का विरोध करने लगे हैं। क्या वास्तव में कैसे हो सकता है। दीपक से आरती करना, धूप खेना आगम विरुद्ध है या आगम 3. श्री वसुनन्दि श्रावकाचार में गाथा नं. 436 से 439, पेज सम्मत, स्पष्ट करें। नं. 469 पर लिखा है: समाधान-वर्तमान में एक ऐसी नवीन धारा चल पड़ी है दीवहिं णियपहोहामियक्क तेएहिधूमरहिएहिं, जो दीपक से आरती करना एवं धूप खेना आदि का विरोध करती मंद चलमंदाणिलवसेण णच्चत अच्चीहिं ।। 436।। है, जबकि शास्त्रों में आरती करना एवं धूप खेने के स्पष्ट बहुशः । घणपडल कम्मणिवहव्व दूर मवसारियंधयारेहिं। 22 अगस्त 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524265
Book TitleJinabhashita 2002 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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