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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा जिज्ञासा-सबसे उपकारी इंद्रिय कौन है?
अर्थ- इनमें से आदि के छह हृदों में क्रम से श्री, ह्री, समाधान- श्लोकवार्तिक में इस प्रकार कहा है-सभी | धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये इन्द्र की वल्लभा व्यन्तर देवियाँ इन्द्रियों की अपेक्षा श्रोत्र इंद्रिय इस जीव को बहुत उपकारी है। रहती हैं। 200॥ कानों से उपदेश को सुनकर अनेक जीव हित की प्राप्ति और | | 3. पं. माणिकचन्द्र जी कौन्देय ने तत्वार्थश्लोक वार्तिक अहित का परिहार कर लेते हैं, उत्कृष्ट ज्ञानी या तत्त्वज्ञानी बनना | के पंचम खण्ड के अध्याय-3 के सूत्र-20 "तन्-निवासिन्यो......" कानों से ही साध्य है। सभी मोक्षगामी जीव कानों से उपदेश की हिन्दी टीका में श्री आदि देवियाँ व्यंतर जाति की देवियाँ तथा सुनकर देशनालब्धि द्वारा साक्षात् या परंपरा से मुक्ति लाभ करते | ये सब ब्रह्मचारिणी हैं ऐसा लिखा है। हैं। जीव को विशेषज्ञ बनाने वाली श्रोत्र इन्द्रिय ही है। यदि कोई उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि श्री,ही,धृति आदि देवियाँ कहे कि रसना इन्द्रिय भी तो उपदेश करके बहुत उपकारी हो रही | व्यंतर जाति की हैं, भवनवासी नहीं। है। स्वर्ग या मोक्ष के उपयोगी पदों का उच्चारण करना, अध्ययन जिज्ञासा- क्या समुद्घात काल में केवली भगवान् के करना, जाप देना आदि रसना इन्द्रिय से ही होता है। उसका उत्तर मन-वचन-काय के क्रियारूप योग से होने वाले आस्रव पाया है कि पहले श्रोत्र इन्द्रिय से सुनकर एवं विषय पर निर्णय करके जाता है? उपदेश दिया जाता है। अत: रसना तो श्रोत्र के आधीन हुई। यदि समाधान उपर्युक्त जिज्ञासा के समाधान में श्री कोई पुनः शंका करे कि सर्वज्ञ के तो श्रोत्र की परतंत्रता का अभाव | राजवार्तिकाकार ने अध्याय 6/2 की टीका में इस प्रकार कहा हैहोते हुए उपदेश होता है। उसको कहते हैं कि सर्वज्ञ दिव्यध्वनि प्रश्न-दंडादि योग में आस्रवत्व मानने में क्या दोष है? रूप प्रवचन में रसना इंद्रिय का व्यापार नहीं है। तीर्थंकर प्रकृति के उत्तर-यद्यपि केवलीसमुद्घात अवस्था में सूक्ष्म योग मानकर उदय से और भव्यों के भाग्यवशात् भगवान् के सर्व अंगों से मेघ तन्निमित्तक अल्पबंध माना जाता है, परन्तु एक सूत्र बनाने से तो गर्जन के समान दिव्यध्वनि होती है। अत: इस प्रवचन में रसना का केवलीसमुद्घात में साधारण योगत्व और बहुबन्ध का प्रसंग आने व्यापार है ही नहीं। अत: जीव की परम हितकारी श्रोत्र इन्द्रिय ही | से विपरीतता आती है। वस्तुतः तो वर्गणानिमित्तक आत्मप्रदेश
परिस्पन्दन रूप मुख्य योग ही आस्रव कहा जाता है, परन्तु शंकाकार-पं. देवेन्द्र कुमार सागर
केवलीसमुद्घात अवस्था में होने वाले दंड, कपाट, प्रतर और जिज्ञासा - श्री ह्री आदि देवियाँ भवनवासी हैं या व्यंतर | लोकपूरण, योग वर्गणा अवलम्बन रूप नहीं हैं, अत: इससे आस्रव जाति की हैं?
नहीं होता अर्थात् दंडाधि योग में आस्रव नहीं माना है। समाधान - श्री ही आदि देवियाँ व्यंतर जाति की देवियाँ प्रतिशंका-वर्गणालम्बन रूप योग नहीं होने से दंडाधि हैं। प्रमाण इस प्रकार हैं
व्यापार काल में अनास्रव होने से दंडादि योगनिमित्तकबंध नहीं 1. तिलोयपण्णत्ति अधिकार-4 में इस प्रकार कहा है- । होना चाहिए परन्तु केवलीसमुद्घात अवस्था में बंध तो माना है? तद्दह-पउमस्सोवरि, पासादे चेट्टदे य धिदिदेवी।। उत्तर-यद्यपि केवलीसमुद्घात में वर्गणा अवलम्बन न होने बहु-परिवारहिं जुदा, णिरुवम-लावण्ण-संपुण्णा॥ 1785॥ | से दंडादि योगनिमित्तक बंध नहीं है तथापि कायवर्गणा निमित्तक इगि-पल्ल-पमाणाऊ, णाणाविह-रयण-भूसिय-सरीरा। | आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन है अतः सूक्ष्म काययोगनिमित्तक बंध
अइरम्मा बेतरिया, सोहम्मिंदस्स सा देवी॥ 1786॥ | केवलीसमुद्घात अवस्था में भी बंध है।
अर्थ-उस द्रह संबंधी कमल के ऊपर स्थित भवन में | 2.श्री श्लोकवार्तिककार ने तत्त्वार्थसूत्र अध्याय-6 के दूसरे बहुत परिवार से संयुक्त और अनुपम लावण्य धृतिदेवी निवास | सूत्र की टीका में इस प्रकार कहा है- स आस्रवः इत्यवधारणात् करती है ।। 1785॥
केवलिसमुद्घातकाले दंडकमाटप्रतरलोकपूरणकाययोगस्यास्त्रअर्थ- एक पल्य आयु की धारक और नाना प्रकार के | वत्वत्यवच्देछदः। कायादिवर्गणालंबनस्यैवयोगस्यास्त्रवत्ववचनात्। रत्नों से विभूषित शरीर वाली अति रमणीय यह व्यन्तरिणी सौधर्मेन्द्र | तस्य तदनालंबनत्वात्। कथमेवं च केवलिनः समुद्घातकाले की देवकुमारी (आज्ञाकारिणी) है।। 1786 ।।
सद्वेधबंध: स्यादिति चेत्, कायवर्गणानिमित्तात्मप्रदेशपरिस्पन्दस्य___ 2. श्री उत्तरपुराण पृष्ठ 188 पर इस प्रकार कहा है: । तन्निमित्तस्य भावात्स इति प्रत्येयं । तेषामाद्येषु षट्सु स्युस्ताः श्री ही धृति कीर्तयः।
अर्थ- स आस्रवः । इस प्रकार अवधारण करने से केवली बुद्धिलक्ष्मीश्च शक्रस्य व्यन्तों वल्लाभाङ्गनाः। 200॥ | के समुद्घात काल में दंड, कपाट, प्रतर, लोकपूरण अवस्थाओं के
-अगस्त 2002 जिनभाषित 21
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