________________
के नाम से विख्यात हुए। सन् 1959 में 62 वर्ष की आयु में | बाद, उन्हें मुनिपद ग्रहण करने की स्वीकृति दे दी। इस कार्य को आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज से खानियाँ (जयपुर) में मुनि | सम्पन्न करने का सौभाग्य मिला अजमेर नगर को और सम्पूर्ण जैन दीक्षा अंगीकार कर 108 मुनि श्री ज्ञानसागरजी के नाम से विभूषित समाज को। 30 जून 1968 तदनुसार आषाढ़ शुक्लपंचमी को हुए और आपको आचार्य श्री का प्रथम शिष्य होने का गौरव प्राप्त | ब्रह्मचारी विद्याधर को विशाल जन समुदाय के समक्ष जैनेश्वरी हुआ। संघ में आपने उपाध्याय पद के कार्य को पूर्ण विद्वत्ता एवं | दीक्षा प्रदान की गई और विद्याधर, मुनि विद्यासागर के नाम से सजगता के साथ सम्पन्न किया। रूढ़िवाद से कोसों दूर मुनि ज्ञानसागर | सुशोभित हुए। उस वर्ष का चातुर्मास अजमेर में ही सम्पन्न हुआ। जी मुनिपद की सरलता और गंभीरता को धारण कर मन, वचन । तत्पश्चात् मुनि श्री ज्ञानसागर जी का संघ विहार करता और काय से दिगम्बरत्व की साधना में लग गये। दिन-रात आपका | हुआ नसीराबाद पहुँचा। यहाँ आपने 7 फरवरी 1969 तदनुसार समय आगमानुकूल मुनिचर्या की साधना, ध्यान, अध्ययन-अध्यापन | मगसरबदी दूज को श्री लक्ष्मीनारायण जी को मुनिदीक्षा प्रदान कर एवं लेखन में व्यतीत होता रहा, फिर राजस्थान प्रान्त में ही विहार | मुनि 108 श्री विवेकासागर नाम दिया। इसी पुनीत अवसर पर करने निकल गये। उस समय आपके साथ मात्र दो-चार त्यागी- | समस्त उपस्थित जैन समाज द्वारा आपको आचार्य पद से सुशोभित व्रती थे, विशेष रूप से ऐलक श्री सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक श्री | किया गया। संभवसागर जी व सुखसागर जी तथा एक-दो ब्रह्मचारी थे। मुनि | आचार्य ज्ञानसागर जी की हार्दिक अभिलाषा थी कि उनके श्री उच्चकोटि के शास्त्र-ज्ञाता, विद्वान एवं तात्त्विक वक्ता थे। शिष्य उनके सान्निध्य में अधिक से अधिक ज्ञार्नाजन कर लें। पंथवाद से दूर रहते हुए आपने सदा जैन सिद्धान्तों को जीवन में | आचार्यश्री अपने ज्ञान के अथाह सागर को समाहित कर देना उतारने की प्रेरणा दी और एक सद्गृहस्थ का जीवन जीने का | चाहते थे विद्या के सागर में और दोनों ही गुरु-शिष्य उतावले थे आह्वान किया।
एक दूसरे में समाहित होकर ज्ञानामृत का निरन्तर पान करने और विहार करते हुए आप मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर तथा | कराने में। आचार्य ज्ञानसागर जी सच्चे अर्थों में एक विद्वान जौहरी ब्यावर भी गये। ब्यावर में पंडित हीरालाल जी शास्त्री ने मुनि श्री | और पारखी थे तथा बहुत दूर दृष्टिवाले थे। उनकी काया निरन्तर को उनके द्वारा लिखित ग्रन्थों एवं पुस्तकों को प्रकाशित कराने की | क्षीण होती जा रही थी। गुरु और शिष्य की जैन सिद्धान्त एवं बात कही, तब आपने कहा "जैन वाङ्मय की रचना करने का वाङ्मय की आराधना, पठन-पाठन एवं तत्त्वचर्चा-परिचर्चा निरन्तर काम मेरा है, प्रकाशन आदि का कार्य आप लोगों का है। अबाधगति से चल रही थी।
जब सन् 1967 में आपका चातुर्मास मदनगंज-किशनगढ़ तीन वर्ष पश्चात् 1972 में आपके संघ का चातुर्मास पुनः में हो रहा था, तब जयपुर नगर के चूलगिरि क्षेत्र पर आचार्य देश | नसीराबाद में हुआ। अपने आचार्य गुरु की गहन अस्वस्थता में भूषण जी महाराज का वर्षायोग चल रहा था। चूलगिरि का निर्माण- | उनके परम सुयोग्य शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी ने पूर्ण निष्ठा कार्य भी आपकी देखरेख एवं संरक्षण में चल रहा था। उसी समय | और नि:स्पृहभाव से इतनी सेवा की कि शायद कोई लखपती बाप सदलगा ग्रामनिवासी, एक कन्नड़भाषी नवयुवक आपके पास | का बेटा भी इतनी निष्ठा और तत्परता के साथ अपने पिता श्री की ज्ञानार्जन हेतु आया। आचार्य देशभूषण जी की आँखों ने शायद | सेवा कर पाता । कानों सुनी बात तो एक बार झूठी हो सकती है, उस नवयुवक की भावना को पढ़ लिया था, सो उन्होंने उस लेकिन आँखों देखी बात को तो शत-प्रतिशत सत्य मान कर ऐसी नवयुवक विद्याधर को आशीर्वाद प्रदान कर ज्ञानार्जन हेतु मुनिवर | उत्कृष्ट गुरुभक्ति के प्रति नतमस्तक होना ही पड़ता है। ज्ञानसागर जी के पास भेज दिया। जब मुनिश्री ने नौजवान विद्याधर चातुर्मास समाप्ति की ओर था। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी में ज्ञानार्जन की एक तीव्र कसक एवं ललक देखी तो मुनिश्री ने | शारीरिक रूप से काफी अस्वस्थ एवं क्षीण हो चुके थे। साइटिका पूछ ही लिया कि अगर विद्यार्जन के पश्चात् छोड़कर चले जाओगे | का दर्द कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। दर्द की भयंकर तो मुनि का परिश्रम व्यर्थ जायेगा। नौजवान विद्याधर ने तुरन्त ही | पीड़ा के कारण आचार्यश्री चलने-फिरने में असमर्थ होते जा रहे दृढ़ता के साथ आजीवन सवारी का त्याग कर दिया। इस त्यागभावना | थे। 16-17 मई 1972 की बात है- आचार्य श्री ने अपने योग्यतम से मुनि ज्ञानसागर जी अत्यधिक प्रभावित हुए और टक-टकी | शिष्य मुनि विद्यासागर से कहा “विद्यासागर ! मेरा अन्त समीप लगाकर उस नौजवान की मनोहारी, गौरवर्ण तथा मधुर मुस्कान | है। मेरी समाधि कैसे सधेगी? के पीछे छिपे हुए दृढ़-संकल्प को देखते ही रह गये।
इसी बीच एक महत्त्वपूर्ण घटना नसीराबाद प्रवास के शिक्षण प्रारम्भ हुआ। योग्य गुरु के योग्य शिष्य विद्याधर | समय घटित हो चुकी थी। आचार्यश्री के देह-त्याग से करीब एक ने ज्ञानार्जन में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसी बीच उन्होंने अखंड | माह पूर्व ही दक्षिण प्रान्तीय मुनि श्री पार्श्वसागर जी आचार्यश्री की ब्रह्मचर्य व्रत को भी धारण कर लिया। ब्रह्मचारी विद्याधर की | निर्विकल्प समाधि में सहायक होने हेतु नसीराबाद पधार चुके थे। साधना, प्रतिभा, तत्परता तथा ज्ञान के क्षयोपशम को देखकर गुरु | वे कई दिनों से आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की सेवा-सुश्रूषा एवं ज्ञानसागर जी इतने प्रभावित हुए कि उनकी कड़ी परीक्षा लेने के | वैय्यावृत्य कर अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहते थे। नियति
-जून 2002 जिनभाषित 7
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org