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________________ आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की जीवन यात्रा निहालचन्द्र जैन, पूर्व प्राचार्य अजमेर (राज.) प्राचीनकाल से ही भारत वसुन्धरा ने अनेक महापुरुषों एवं । साहित्य, न्याय और व्याकरण को पुनर्जीवित करने का भी दृढ़ नरपुंगवों को जन्म दिया है। इन नररत्नों ने भारत के सामाजिक, संकल्प लिया । अडिग विश्वास, निष्ठा एवं संकल्प के धनी श्री राजनैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक एवं शौर्य के क्षेत्र में अनेकों भूरामल जी ने कई जैन एवं जैनेतर विद्वानों से जैन वाङ्गमय की कीर्तिमान स्थापित किये हैं। जैन धर्म भी भारतभूमि का एक शिक्षा प्राप्त की। वाराणसी में रहकर ही स्याद्वाद महाविद्यालय से प्राचीन धर्म हैं, जहाँ तीर्थकर, श्रुतकेवली, केवली भगवान के "शास्त्री" की परीक्षा पास कर आप पं. भूरामल जी नाम से साथ-साथ अनेकों आचार्यों, मुनियों एवं सन्तों ने इस धर्म का विख्यात हुए। वाराणसी में ही आपने जैनाचार्यों द्वारा लिखित अनुसरण कर मानव समाज के लिए मुक्ति एवं आत्मकल्याण का न्याय, व्याकरण, साहित्य, सिद्धान्त एवं अध्यात्म विषयों के अनेक मार्ग प्रशस्त किया है । ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। इस 19-20 शताब्दी के प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य परमपूज्य, चारित्र चक्रवर्ती आचार्य 108 श्री शांतिसागर जी महाराज थे, जिनकी परम्परा में आचार्य श्री वीर सागरजी, आचार्य श्री शिव सागरजी इत्यादि तपस्वी साधुगण हुए। मुनि श्री ज्ञानसागरजी आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज से वि. सं. 2016 में खानियाँ (जयपुर) में मुनिदीक्षा लेकर अपने आत्मकल्याण के मार्ग पर आरूढ़ हो गये थे। आप शिवसागर आचार्य महाराज के प्रथम शिष्य थे । मुनि श्री ज्ञानसागर जी का जन्म राणोली ग्राम (सीकरराजस्थान) में दिगम्बर जैन छाबड़ा कुल में सेठ सुखदेवजी के पुत्र चतुर्भुज जी की धर्मपत्नी घृतावरी देवी की कोख से हुआ था । आपके बड़े भ्राता श्री छगनलालजी थे तथा दो छोटे भाई और थे तथा एक भाई का जन्म तो पिताश्री के देहान्त के बाद हुआ था । आप स्वयं भूरामल के नाम से विख्यात हुये। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के प्राथमिक विद्यालय में हुई। साधनों के अभाव में आप आगे विद्याध्ययन न कर अपने बड़े भाई जी के साथ नौकरी हेतु गयाजी (बिहार) आ गये। वहाँ 13-14 वर्ष की आयु में एक जैनी सेठ की दूकान पर आजीविका हेतु कार्य करते रहे, लेकिन आपका मन आगे पढ़ने के लिए छटपटा रहा था। संयोगवश स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी के छात्र किसी समारोह में भाग लेने हेतु गयाजी ( बिहार ) आये। उनके प्रभावपूर्ण कार्यक्रमों को देखकर युवा भूरामल के भाव भी विद्या प्राप्ति हेतु वाराणसी जाने के हुए । विद्याध्ययन के प्रति आपकी तीव्र भावना एवं दृढ़ता देखकर आपके बड़े भ्राता ने 15 वर्ष की आयु में आपको वाराणसी जाने की स्वीकृति प्रदान कर दी। श्री भूरामल जी बचपन से ही कठिन परिश्रमी, अध्यवसायी, स्वावलम्बी एवं निष्ठावान थे। वाराणसी में आपने पूर्ण निष्ठा के साथ विद्याध्ययन किया और संस्कृत एवं जैन सिद्धान्त का गहन अध्ययन कर शास्त्री परीक्षा पास की। जैन धर्म से संस्कारित श्री भूरामल जी न्याय, व्याकरण एवं प्राकृत ग्रन्थों को जैन सिद्धान्तानुसार पढ़ना चाहते थे, जिसकी उस समय वाराणसी में समुचित व्यवस्था नहीं थी। आपका मन क्षुब्ध हो उठा, परिणामतः आपने जैन जून 2002 जिनभाषित 6 Jain Education International बनारस से लौट कर आपने अपने ही ग्रामीण विद्यालय में अवैतनिक अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया, लेकिन साथ में निरन्तर साहित्य-साधना एवं साहित्य-लेखन के कार्य में भी अग्रसर होते गये। आपकी लेखनी से एक से एक सुन्दर काव्यकृतियाँ जन्म लेती रहीं। आपकी तरुणाई, विद्वत्ता और आजीविकोपार्जन की क्षमता देखकर आपके विवाह के लिए अनेकों प्रस्ताव आये, सगे सम्बन्धियों ने भी आग्रह किया, लेकिन आपने वाराणसी में अध्ययन करते हुए ही संकल्प ले लिया था कि आजीवन ब्रह्मचारी रहकर माँ सरस्वती और जिनवाणी की सेवा में, अध्ययन-अध्यापन तथा साहित्य-सृजन में ही अपने आपको समर्पित कर दूंगा। इस तरह जीवन के 50 वर्ष साहित्य साधना, लेखन, मनन एवं अध्ययन में व्यतीत कर पूर्ण पांडित्य प्राप्त कर लिया। इसी अवधि में आपने दयोदय, भद्रोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय आदि साहित्यिक रचनाएँ संस्कृत तथा हिन्दी भाषा में प्रस्तुत कीं। वर्तमान शताब्दी में संस्कृत भाषा के महाकाव्यों की रचना की परम्परा को जीवित रखनेवाले मूर्धन्य विद्वानों में आपका नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। काशी के दिग्गज विद्वानों की प्रतिक्रिया थी “इस काल में भी कालिदास और माघकवि की टक्कर लेने वाले विद्वान हैं, यह जानकर प्रसन्नता होती है।" इस तरह पूर्ण उदासीनता के साथ, जिनवाणी माँ की अविरत सेवा में आपने गृहस्थाश्रम में ही जीवन के 50 वर्ष पूर्ण किये। जैन सिद्धान्त के हृदय को आत्मसात करने हेतु आपने सिद्धान्त ग्रन्थों श्री धवल, महाधवल, जयधवल, महाबन्ध आदि ग्रन्थों का विधिवत् स्वाध्याय किया । "ज्ञानं भारं क्रियां विना " क्रिया के बिना ज्ञान भारस्वरूप है, इस मंत्र को जीवन में उतारने हेतु आप त्यागमार्ग पर प्रवृत्त हुए। सर्वप्रथम 52 वर्ष की आयु में सन् 1947 में आपने अजमेर नगर में ही आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से सप्तम प्रतिमा के व्रत अंगीकार किये। 54 वर्ष की आयु में आप पूर्णरूपेण गृहत्याग कर आत्मकल्याण हेतु जैन सिद्धान्त के गहन अध्ययन में लग गये। सन् 1955 में 60 वर्ष की आयु में आप आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से ही रेनवाल में क्षुल्लक दीक्षा लेकर ज्ञानभूषण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524263
Book TitleJinabhashita 2002 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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