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________________ चले गये, लेकिन रुका कोई नहीं।" गुरु के ये वचन शिष्य को इतना बदल देते हैं कि ब्रह्मचारी विद्याधर आजीवन वाहन का त्याग कर देता है । इससे गुरु की आँखें विस्मय और हर्ष से चमक उठती हैं। वे स्नेहसिक्त हाथ शिष्य के मस्तक पर रख देते हैं और अत्यन्त वात्सल्यभाव से कहते हैं - ' विद्याधर, बहुत देरे से आये। मैं तुम्हें पढ़ा-लिखाकर विद्याधर से विद्यानन्दी (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के कर्त्ता) बना दूँगा।' इन वात्सल्यपूर्ण वचनों को सुनकर शिष्य विद्याधर आनन्द से गदगद हो जाता है। ऐसा विवेकपूर्ण लालन-ताडन का कौशल, प्यार से अँगुली पकड़कर शिष्य को वांछित दिशा में ले जाने और उसके आचरण पर प्रहरी की आँख रखकर उसे स्खलनों से बचाते रहने का नैपुण्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी में था, जिसके द्वारा उन्होंने आचार्य विद्यासागर जैसे अद्वितीय व्यक्तित्व का निर्माण किया। त्याग और नम्रता की चरमसीमा अस्सी वर्ष की अवस्था में जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के जीवन का अन्तिम समय आया, तब उन्होंने अपना आचार्यपद । प्रेरणा देता है। श्री दि. जैन मंदिर, टिन शेड, टी.टी. नगर, भोपाल में परमपूज्य आचार्य श्री विरागसागर जी के सुशिष्य पूज्य मुनिश्री विशुद्धसागर जी मुनि श्री विशल्यसागर जी मुनि श्री विश्ववीर सागर जी एवं मुनिश्री विश्रान्तसागर जी के तत्त्वावधान में दिनांक 17.5.2002 को ग्रीष्मकालीन आध्यात्मिक एवं सैद्धान्तिक वाचना की स्थापना की गई थी, जिसकी निष्ठापना दिनांक 15.6.2002 को समारोहपूर्वक सम्पन्न हुई । अपने योग्यतम शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी को दे दिया और स्वयं अपने शिष्य के शिष्य बन गये तथा उनके चरणों में मस्तक रखकर सल्लेखनाव्रत प्रदान करने की याचना की। शिष्य विद्यासागर मुश्किल में पड़ गये। किन्तु गुरु ने गुरुदक्षिणा देने के रूप में यह पद स्वीकार करने की बाध्यता उत्पन्न कर दी। तब उन्हें विवश होकर गुरु का आदेश शिरोधार्य करना पड़ा। गुरुता का त्याग कर देना और अपने ही शिष्य को अपना गुरु बना कर लघुता स्वीकार कर लेना त्याग और नम्रता के उत्कर्ष की चरम सीमा है। यह एक ऐसी मिसाल है जो इतिहास में देखने को नहीं मिलती। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का एकमात्र यही गुण उन्हें लोकोत्तर बना देता है और भव्यात्माओं के मस्तक को उनके सामने श्रद्धा से अवनम्र कर देता है । आचार्यश्री ज्ञानसागर जी का समाधिमरण ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या वि.सं. 2030, दि. 1 जून 1973 को हुआ था । तदनुसार ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या वि. सं. 2059, दि. 10 जून 2002 को उनका तीसवाँ समाधिदिवस है। यह हमें संसारबन्धन से मुक्त होने की रतनचन्द्र जैन भोपाल में ग्रीष्मकालीन वाचना का निष्ठापन प्रतिदिन प्रातः 7 से 8 बजे तक मुनि श्री विश्रान्तसागर जी द्रव्संग्रह की वाचना एवं विवेचना करते थे। 8 से 8.30 तक मुनि श्री विशल्यसागर एवं मुनि श्री विश्ववीर सागर एक-एक दिन श्रावकधर्म पर प्रकाश डालते थे। 8.30 से 9.30 तक मुनि श्री विशुद्धसागर जी का बारसाणुवेक्खा पर प्रवचन होता था । अपराह्न 3.00 से 4.00 तक मुनि श्री विशुद्ध सागर जी परमात्मप्रकाश के माध्यम से अध्यात्म का सूक्ष्म, गहन विश्लेषण करते थे। तत्पश्चात् 4.00 से 5.00 तक प्रो. रतनचन्द्र जी जैन के द्वारा तत्त्वार्थवार्तिक के चतुर्थ अध्याय की वाचना की जाती थी। Jain Education International पूज्य मुनि श्री विशुद्ध सागर जी द्वारा की जाने वाली आध्यात्मिक चर्चा इतनी रोचक और प्रभावक होती थी कि श्रोता पन्थ, पक्ष और जाति का भेद न करते हुए बड़ी संख्या में सुनने के लिए उपस्थित होते थे। मुनि श्री ने 'माध्यस्थ्यभाव विपरीतवृत्तौ पर जोर देते हुए यह सन्देश दिया कि जो हमसे विपरीत विचारधारा रखता है उसे केवल वात्सल्यभाव से समझाने की ही कोशिश की जाय, उसकी निन्दा गर्हा आलोचना न की जाय, क्योंकि निन्दा गर्हा आलोचना से वह और कट्टर बनता है। निष्ठापना के दूसरे दिन मुनिसंघ टिन शेड जैन मंदिर से विहार कर दि. जैन मन्दिर पंचशील नगर भोपाल पहुँच गया। संघ अभी वहीं विराजमान है और प्रतिदिन प्रातः 8.30 से बारसाणुपेक्खा पर प्रवचन होते हैं। अपराह्न 3.00 बजे से 4.00 तक परमात्मप्रकाश की वाचना की जाती है। अजित पाटनी For Private & Personal Use Only -जून 2002 जिनभाषित 5 www.jainelibrary.org
SR No.524263
Book TitleJinabhashita 2002 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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