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________________ को कुछ और ही मंजूर था। 15 मई 1972 को पार्श्वसागर महाराज | एवं रोमांचक दृश्य था, मुनि की संज्वलन कषाय की मन्दता का को शारीरिक व्याधि उत्पन्न हुई और 16 मई को प्रातः काल | सर्वोत्कृष्ट उदाहरण था। आगमानुसार आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने करीब 7 बजकर 45 मिनिट पर अरहन्त, सिद्ध का स्मरण करते। आचार्य पदत्याग की घोषणा की तथा समाज से अपने सर्वोत्तम हुए वे इस नश्वर देह का त्याग कर स्वर्गारूढ़ हो गये। अतः अब | योग्य शिष्य मुनि श्री विद्यासागरजी को अपना गुरुतर भार एवं यह प्रश्न आचार्य ज्ञानसागर जी के सामने उपस्थित हुआ कि | आचार्य पद देने की स्वीकृति माँगकर, उन्हें आचार्य पद से विभूषित समाधि हेतु आचार्य पद का परित्याग तथा किसी अन्य आचार्य किया। जिस बडे पट्टे पर आज तक आचार्यश्री ज्ञानसागर जी की सेवा में जाने का आगम में विधान है। आचार्य श्री के लिए इस | आसीन होते थे, उससे वे नीचे उतर आये और मुनि श्री विद्यासागरजी भंयकर शारीरिक उत्पीडन की स्थिति में किसी अन्य आचार्य के | को उस आसन पर पदासीन किया। जन-समुदाय की आँखें सुखानन्द पास जाकर समाधि लेना भी संभव नहीं था। आचार्यश्री ने के आँसुओं से तरल हो गईं। जयघोष से आकाश और मंदिर का अन्ततोगत्वा अपने शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी से कहा "मेरा | प्रागंण गूंज उठा। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने अपने गुरु के शरीर आयु कर्म के उदय से रत्नत्रय-आराधना में शनैः शनैः कृश | आदेश का पालन करते हुए पूज्य गुरुवर की निर्विकल्प समाधि के हो रहा है। अत: मैं यह उचित समझता हूँ कि शेष जीवनकाल में लिए आगमानुसार व्यवस्था की। गुरु ज्ञानसागरजी महाराज भी आचार्य पद का परित्याग कर इस पद पर अपने प्रथम एवं योग्यतम परम शान्तभाव से अपने शरीर के प्रति निर्ममत्व होकर रसत्याग शिष्य को पदासीन कर दूँ। मेरा विश्वास है कि आप श्री जिनशासन की ओर अग्रसर होते गए। संवर्धन एवं श्रमण संस्कृति का संरक्षण करते हुए इस पद की आचार्य श्री विद्यासागरजी ने अपने गुरु की सल्लेखनापूर्वक गरिमा को बनाये रखोगे तथा संघ का कुशलतापूर्वक संचालन कर | समाधि कराने में कोई कसर नहीं छोडी। रात-दिन जागकर एवं समस्त समाज को सही दिशा प्रदान करोगे।" जब मुनि श्री समयानुकूल सम्बोधन करते हुए आचार्यश्री ने मुनिवर की शांतिपूर्वक विद्यासागरजी ने इस महान भार को उठाने में ज्ञान, अनुभव और समाधि कराई। अन्त में समस्त आहार एवं जल के त्यागोपरान्त उम्र से अपनी लघुता प्रकट की तो आचार्य ज्ञानसागरजी ने कहा- मिती ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या वि. स. 2030 तदनुसार शुक्रवार "तुम मेरी समाधि साध दो, आचार्य पद स्वीकार कर लो। फिर | दिनाँक 1 जून 1973 को दिन में 10 बजकर 50 मिनिट पर गुरु भी तुम्हें संकोच है तो गुरु दक्षिणास्वरूप ही मेरे इस गुरुतर भार ज्ञानसागर जी इस नश्वर शरीर का त्याग कर आत्मलीन हो गये को धारण कर मेरी निर्विकल्प समाधि करा दो, अन्य उपाय मेरे और दे गये समस्त समाज को एक ऐसा सन्देश कि अगर सुख, सामने नहीं है।" शांति और निर्विकल्प समाधि चाहते हो तो कषायों का शमन कर मुनि श्री विद्यासागर जी काफी विचलित हो गये, काफी | रत्नत्रय मार्ग पर आरुढ़ हो जाओ, तभी कल्याण संभव है। मंथन किया, विचार-विमर्श किया और अन्त में निर्णय लिया कि इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आचार्य ज्ञानसागरजी का गुरु-दक्षिणा तो गुरु को हर हालत में देनी ही होगी और इस तरह | विशाल कृतित्व और व्यक्तित्व इस भारतभूमि के लिए सरस्वती उन्होंने अपनी मौन स्वीकृति गुरु-चरणों से समर्पित कर दी। | के वरदपत्र की उपलब्धि कराता है। अनेकानेक ज्ञान पिपासुओं ने अपनी विशेष आभा के साथ 22 नवम्बर 1972 तदनुसार इनके महाकाव्यों पर शोध कर डाक्टर की उपाधि प्राप्त कर अपने मगसर बदी दूज का सूर्योदय हुआ। आज जिनशासन के अनुयायिओं | आपको गौरवान्वित किया है। आचार्यश्री के साहित्य की सुरभि को साक्षात् एक अनुपम एवं अद्भुत दृश्य देखने को मिला। कल | वर्तमान में सारे भारत में फैल कर विद्वानों को इस तरह आकर्षित तक जो श्री ज्ञानसागरजी महाराज संघ के गुरु थे, आचार्य थे, | करने लगी है कि समस्त भारतवर्षीय जैन-अजैन विद्वानों का सर्वोपरि थे, आज वे ही साधु एवं मानव धर्म की पराकाष्ठा का एक | ध्यान उनके महाकाव्यों की ओर गया है। उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करने जा रहे थे, यह एक विस्मयकारी ___ 'जयोदय' महाकाव्य (पूर्वार्ध) से साभार मुलायम मखमल लगाना ठीक रहेगा ऐसी ही एक घटना और हुई, जब किसी श्रावक ने आचार्य महाराज को हाथ का सहारा लेकर विश्राम करते देखा, तो यह सोचकर कि इस तरह लेटने से वृद्धावस्था में महाराज को कष्ट होता होगा, एक लकड़ी का फलक बनवाकर सिरहाने रख दिया। दूसरे दिन सुबह जैसे ही वह श्रावक आए, महाराज जी ने मुस्कराकर कहा कि "देखो, यह जो लकड़ी का टुकड़ा आपने रखा है वह जरा कठोर है, इस पर मुलायम मखमल लगाना ठीक रहेगा।" बात सीधे-सादे ढंग से कही गई थी, पर मार्मिक थी और शिथिलता का पोषण करने वालों के प्रति प्रच्छन्न व्यंग्य के रूप में दिशाबोध देने वाली थी। 'आत्मान्वेषी' से साभार 8 जून 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524263
Book TitleJinabhashita 2002 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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