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________________ परिवर्तन कहते हैं, किन्तु विवक्षित योग का कालक्षय होने के पूर्व ही क्रोधादि निमित्त से योग परिवर्तन को व्याघात कहते हैं। जैसेकोई एक जीव मनोयोग के साथ विद्यमान है जब अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मनोयोग का काल पूरा हो गया, तब वह वचनयोगी या काययोगी हो गया। यह योग-परिवर्तन है। इसी जीव के मनोयोग का काल पूरा होने के पूर्व ही कषाय, उपद्रव, उपसर्ग आदि के निमित्त से मन चंचल हो उठा और वह वचनयोगी या काययोगी हो गया, तो यह योग का परिवर्तन व्याघात की अपेक्षा से हुआ। योगपरिवर्तन में काल प्रधान है, जबकि व्याघात परिवर्तन में कषाय आदि का आघात प्रधान है। यही दोनों में अंतर है। जिज्ञासा - दही एवं शक्कर मिलाकर खाना क्या अभक्ष्य है ? समाधान किन्ही भी आचारप्रणीत ग्रन्थों में भक्ष्यअभक्ष्य, सूतक पातक आदि के बारे में विस्तृत कथन देखने में नहीं आता। ये प्रसंग विद्वानों द्वारा लिखित श्रावकाचारों या क्रियाकोषों में ही देखने को मिलते हैं। अतः इन्हीं के आधार पर इस विषय पर चर्चा की जा सकती है। श्री किशनसिंह विरचित क्रियाकोष (अगास प्रकाशन) पृष्ठ-18 में इस प्रकार कहा है कपड़े बांध दही को धरै मीठो मेल शिखरिणी करै ।113 खारिख दाख घोल दधिमांहि, मीठो भेल रायता खांहि । मीठो जब दधिमांहि मिलाहिं, अन्तरमुहूर्त त्रस उपजांहि [1114 या मीठा जुत जो दही, अन्तरमुहूर्त मांहे सही। खावो भविजनको हितदाय, पीछे सन्मूर्च्छन उपजाय ॥ 115 उक्तं च गाथा इक्खु दही संजुत्तं भवन्ति समुच्छिमा जीवा । अन्तोमुहूर्त मज्झे तम्हां भांति जिणणाहो ॥1-116 अर्थ कितने ही लोग कपड़े में दही को बाँध कर रखते हैं, पश्चातू मीठा मिलाकर शिखरिणी बनाते हैं। इसके सिवाय कितने ही लोग खारक और दाख के घोल को दही में मिलाकर तथा मीठा डालकर रायता खाते हैं सो दही में मीठा मिलाने पर अन्तर्मुहुर्त में त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। मीठा सहित दही अन्तर्मुहूर्त तक तो ठीक रहता है, भव्य जीव उसे खा सकते हैं। परन्तु पश्चात् उसमें संमूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। जैसा कि गाथा में कहा गया है मीठा और दही मिलाने पर अन्तर्मुहूर्त में संमूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है । -113-116 - (2) श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार (पं. सदासुखदास जी की टीका-जैन साहित्य सदन, दिल्ली प्रकाशन, पृष्ठ 136 ) में इस प्रकार लिखा है "दही में खांड - बूरा मिलाय बहुत कालपर्यन्त मत राखो, दोय मुहूर्त तांई खाना योग्य है" अर्थात् दही में शक्कर मिलाकर केवल दो मुहूर्त अर्थात् लगभग डेढ़ घण्टा तक खाया जा सकता है। इसके बाद अभक्ष्य हो जाता है। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि दही में मीठा मिलाकर यदि खाने का अवसर पड़े तो तुरन्त ही मिलाकर खा लेना चाहिए। 24 जून 2002 जिनभाषित Jain Education International अन्यथा उसमें त्रस जीवों की उत्पत्ति होने से वह अभक्ष्य है। बहुत से साधर्मी भाई अपने घर में श्रीखण्ड बनाकर खाते हैं जो उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार अभक्ष्य की कोटि में आता है। जिज्ञासा - वेल फल भक्ष्य है या अभक्ष्य । समाधान इसके सम्बन्ध में निम्न प्रमाण द्रष्टव्य है । (1) उमास्वामी श्रावकाचार श्लोक नं. 313 में इस प्रकार कहा हैशिम्यमो मूलकं विल्वफलानि कुसुमानि च । नालीसूरणकन्दश्च त्यक्तव्यं शृंगबेरकम् ॥313॥ अर्थात् सेम, मूली, विल्वफल अर्थात् बेल, पुष्प, नाली, सूरण, जमीकन्द और अदरक का भी त्याग करना चाहिये । (2) श्री पूज्यपाद श्रावकाचार श्लोक नं. 36 में इस प्रकार कहा है श्रृंगवेरं तथानन्तकाया विल्वफलं सदा । पुष्पं शाकं च सन्धानं नवनीतं च वर्जयेत् ॥ 136 अर्थात् श्रृंगवेर अर्थात् अदरक तथा कन्दमूल आदि सभी अनन्तकाय वनस्पति, वेलफल, पुष्प, शाक, सन्धानक (अचार, मुरब्बा) और नवनीत इनका सदा त्याग करें। (3) श्री किशन सिंह विरचित क्रियाकोष ( अगास प्रकाशन) पृष्ठ 26 पर इस प्रकार कहा गया है कालिंगडा घिया तोरड़, कदू बेल रू जामा मिई । इत्यादिक फल काय अनन्त, तिनको तजिये तुरत महंत ॥17॥ अर्थ कलींदा ( तरबूज ), लौकी, तोरई, कद्दू, बेल, जामुन, निवोरी आदिक फल अनन्तकाय कहे गये हैं। इसलिये उत्तम जनों को इनका शीघ्र ही त्याग करना चाहिए। उपर्युक्त ग्रन्थ, उमास्वामी श्रावकाचार तथा पूज्यपाद श्रावकाचार, यद्यपि उन आचार्य उमास्वामी एवं आचार्य पूज्यपाद द्वारा रचित नहीं हैं, जो तत्त्वार्थसूत्र एवं सर्वार्थसिद्धि टीका के रचयिता हैं। परन्तु फिर भी सोलापुर से प्रकाशित श्रावकाचार संग्रह में इनका संकलन होने से उपर्युक्त प्रमाण दिये गये हैं। वर्तमान में बहुत से त्यागीजन वेल के रस का सेवन करते हुवे देखे जाते हैं उनसे निवेदन है कि वे कृपया उपर्युक्त प्रमाणों पर विचार करें। (4) श्री सिद्धांतसार रचयिता, आ. नरेन्द्रसेन, ( सोलापुर प्रकाशन) पृष्ठ 248 में बेल फल खाने पर प्रायश्चित्त का विधान किया है। यथा - बीजपूरकबिल्वादिग्रहणेन तु शुद्धयति । एक कल्याणकेनैव यदिकारणमाश्रितः ॥57 || अर्थ- किसी कारण से बीजपूर-बिजौरा, बेलफल आदि का ग्रहण यदि मुनि करे, तो वह एक कल्याण से ही शुद्ध होता है |57 || For Private & Personal Use Only 1/205, प्रोफसर्स कॉलोनी आगरा (उ.प्र.) -282002 www.jainelibrary.org
SR No.524263
Book TitleJinabhashita 2002 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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