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________________ बारह भावना श्री मंगतराय जी वंदूं श्री अरहंत पद वीतराग विज्ञान। ओस बूंद ज्यों गलै धूप में बा अंजुलि पानी। वरणूं बारह भावना जग जीवन हित जान 1॥ छिन-छिन यौवन छीन होत है क्या समझै प्रानी॥ अर्थ - वीतराग विज्ञान स्वरूप श्री अरहंत भगवान की इंद्रजाल आकाश नगर सम जगसंपति सारी। वंदना करके संसार के जीवों के कल्याण को जानकर बारह भावना अथिर रूप संसार विचारो सब नर अरु नारी॥5॥ का वर्णन करता हूँ। अर्थ - जिस प्रकार धूप के आने पर ओस की बूंद गल कहाँ गये चक्री जिन जीता भरत खंड सारा। जाती है अथवा अंजुलि में लिया हुआ पानी धीरे-धीरे गिर जाता कहाँ गये वह राम रू लक्ष्मण जिन रावण मारा। है, उसी प्रकार यह जो यौवन अवस्था है यह भी क्षण-क्षण में नष्ट कहाँ कृष्ण रुक्मणि सतभामा अरु सम्पति सगरी। | हो रही है। हे प्राणी ! इस बात को तू समझ ! इन्द्र के मायाजाल कहाँ गये वह रंगमहल अरु सुवरन की नगरी॥2॥ | और आकाश में बनाये गये काल्पनिक नगर के समान संसार की शब्दार्थ - भरत खंड-5म्लेच्छ खंड,1 आर्य खंड, सगरी- | सारी सम्पत्तियाँ अथिर रूप हैं। तुम संसार को इसी तरह नाशवान पूरी। जानो। अर्थ - जिन्होंने पूरे भरत खंड में विजय प्राप्त की, ऐसे भावार्थ - यहाँ पर तीन संयोगों की बात की है, जिनका चक्रवर्ती की क्या गति हुई? जिन्होंने रावण को मारा, उन लक्ष्मण | वियोग अवश्यंभावी है। व राम की क्या गति हुई? श्री कृष्ण, रुक्मणि और सत्यभामा एवं 1. प्राप्त हुई आयु धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। उनकी सम्पत्ति का क्या हुआ? कृष्ण जी का रंगमहल (द्वारिका) 2. यौवन अवस्था प्राप्त हुई है, वह बुढ़ापे को देकर जाती है। एवं रावण की स्वर्ण की लंका का क्या हुआ? 3. चेतन-अचेतन आदि प्राप्त हुई सभी वस्तुएँ नश्वर हैं। नहीं रहे वह लोभी कौरव जूझ मरे रन में। अशरण भावना गये राज तज पांडव वन को अगिन लगी तन में। मोह नींद से उठ रे चेतन तुझे जगावन को। काल सिंह ने मग चेतन को घेरा भव वन में। हो दयाल उपदेश करें गुरु बारह भावन को॥3॥ नहीं बचावन हारा कोई यों समझो मन में। शब्दार्थ- जूझ-झगड़ा करके, रन-युद्ध, तज-त्याग करके। मंत्र-यंत्र सेना धन संपति राज पाट छूटे। अर्थ - लालची कौरव भी नहीं रहे, वे भी झगड़ा करके वश नहीं चलता काल लुटेरा काय नगरि लूटै॥6॥ युद्ध में मरण को प्राप्त हुये। राज्य का त्याग करके पांडवों ने दीक्षा अर्थ - काल (यमराज) रूपी शेर ने हरिण रूपी आत्मा ले ली, उनके भी शरीर में कौरवों ने अग्नि लगा दी व गर्म लोहे के को संसार रूपी वन में घेरा हुआ है ! इस आत्मा को यमराज रूपी आभूषण पहना दिये। हे चेतन। तू मोह रूपी निद्रा से उठ जा, तुझे काल से कोई बचा नहीं सकता है, ऐसा अपने मन में विचार करो। जगाने के लिए दयालुगुरु बारह भावना का उपदेश दे रहे हैं। जब यमराज रूपी काल, शरीर रूपी नगर को लूटकर ले जाता है, उस समय मंत्र-तंत्र, सेना, धन-सम्पत्ति, राजपाट सब यही छूट अनित्य भावना जाता है। इनमें से कोई भी बचाने में समर्थ नहीं है। सूरज चाँद छिप निकलै ऋतु फिर-फिर कर आवै। चक्ररत्न हलधर सा भाई काम नहीं आया। प्यारी आयु ऐसी बीतै पता नहीं पावै॥ एक तीर के लगत कृष्ण की विनश गई काया। पर्वत पतित नदी सरिता जल बहकर नहिं हटता। देव धर्म गुरु शरण जगत में और नहीं कोई। स्वाँस चलत यों घटै काठ ज्यों आरे सों कटता॥4॥ भ्रम से फिरै भटकता चेतन यूँ ही उमर खोई॥7॥ अर्थ - सूरज और चन्द्रमा छिपते हैं और निकलते हैं, अर्थ - जिस समय जरत कुमार का तीर धोखे से कृष्ण जी ऋतुएँ आती हैं और जाती हैं। हमारी प्यारी आयु भी ऐसे ही बीत | को लग गया था, उस समय अर्द्धचक्री (कृष्ण) का चक्ररत्न एवं रही है कि हमें पता भी नहीं चलता है। पर्वत से गिरता हुआ और | बलदेव (बलभद्र) जैसा भाई उनके काम नहीं आया। कृष्ण जी नदियों में बहता हुआ पानी कभी रुकता नहीं है। जैसे चलते हुए की काया नष्ट हो गयी। इस संसार में देव, धर्म और गुरु ही शरण आरे से लकड़ी कटती जाती है, वैसे ही स्वाँस चलते-चलते | हैं और कोई शरण देने वाला नहीं है। अन्य पदार्थों को शरण जीवन घटता जाता है। | मानता हुआ यह संसारी प्राणी भ्रम से भटकता हुआ अपनी उम्र -जून 2002 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524263
Book TitleJinabhashita 2002 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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