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________________ जिज्ञासा समाधान नहीं ? समाधान - श्री तिलोयपण्णत्ति अधिकार- 4 गाथा - 2552 जिज्ञासा - जातिस्मरण कितने भव तक का हो सकता है ? समाधान - श्री आदिपुराण (ज्ञानपीठ प्रकाशन ) भाग-1, पृष्ठ-452 पर इस प्रकार कहा है :- भगवान् का रूप देखकर श्रेयांसकुमार को जातिस्मरण हो गया, जिससे उसने अपने पूर्व में कुमानुषि- कुमानुषों का वर्णन इस प्रकार किया हैपर्याय संबंधी संस्कारों से भगवान् के लिए आहार देने की बुद्धि की ॥ 78 ॥ उसे श्रीमती और बज्रजंघ आदि का वह समस्त वृत्तांत याद हो गया तथा उसी भव में उन्होंने जो चारण ऋद्धिधारी दो मुनियों के लिए आहार दिया था, उसका भी उसे स्मरण हो गया 179 ॥ भावार्थ राजा श्रेयांस को अपने पूर्वभव श्रीमती की पर्याय तक का जातिस्मरण हुआ था। राजा श्रेयांस के पूर्वभव इस प्रकार रहे 1. अहमिन्द्र 2. धनदत्त 3. प्रतीन्द्र 4. केशव 5. स्वयंप्रभ देव 6. भोगभूमि में आर्या 7. श्रीमती अर्थात् राजा श्रेयांस को पिछले 7 भवों का जातिस्मरण हुआ। गब्भादो ते मणुवा, जुगलं जुगला सुहेण णिस्सरिया । तिरिया समुच्चिदेहिं, दिणेहि धारंति तारुण्णा ॥2552 | अर्थ- वे मनुष्य और तिर्यंच युगल-युगल रूप में गर्भ से सुखपूर्वक निकलकर अर्थात् जन्म लेकर समुचित दिनों में यौवन धारण करते हैं। 2. श्री जसहरचरिउ ( ज्ञानपीठ प्रकाशन) पृष्ठ-123 पर इस प्रकार कहा है- अभयरुचि कुमार और अभयमति पुत्री को इस प्रकार जातिस्मरण हुआ। हम ही वे राजा के पूर्वज रानी चन्द्रमति और राजा यशोधर हैं, हम ही वे थलचर, वे मयूर और श्वान हुए थे, हम ही नकुल और सर्प हुए थे, हम ही शिप्रा नदी के जलचर मत्स्य और सुंसुमार हुए, हम दोनों ही फिर अज हुए तत्पश्चात् अज और महिष हुए, हम ही कुक्कुट पक्षी हुए और तत्पश्चात् अभयरुचि और अभयमति हुए हैं। भावार्थ इस प्रमाण के अनुसार भी अभयरुचि और अभयमति को पिछले 7 भवों का जातिस्मरण हुआ था। 3. श्री वीरवर्धमान चरितम् (श्री सकलकीर्ति विरचित ज्ञानपीठ प्रकाशन) पृष्ठ 213 पर इस प्रकार कहा है: इसी राजगृह नगर में भवस्थिति के वश से पूर्वभव में मनुष्य आयु को बाँधकर नीचगोत्र के उदय से अत्यंत नीचकुल में उत्पन्न हुआ कालसौकरिक नाम का कसाई रहता है। अब उसे सातभव संबंधी जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ है। भावार्थ- इस प्रमाण के अनुसार भी उस कसाई को सात भव संबंधी जातिस्मरण हुआ था। ******.. उपर्युक्त तीन प्रमाणों के अनुसार, आगम में, सात भव तक के जातिस्मरण के प्रसंग प्राप्त होते हैं। यद्यपि किसी भी शास्त्र में या किसी भी आचार्य आदि के द्वारा प्रवचन आदि में यह पढ़नेसुनने को नहीं मिला कि जातिस्मरण अधिक से अधिक कितने भवों का हो सकता है, परन्तु उपर्युक्त प्रमाण सात भव तक के जातिस्मरण होने का वर्णन करते हैं। यदि इससे अधिक भवों का कोई प्रमाण मिले तो स्वाध्यायप्रेमी सज्जन तुरंत सूचित करने का कष्ट करें। Jain Education International पं. रतनलाल बैनाड़ा जिज्ञासा- कुभोग भूमि में तिर्यंच पाये जाते हैं अथवा वे धणु सहस्स तुंगा, मंदकसाया पिरंगु सामलया । सव्वे ते पल्लाउ, कुभोग- भूमीए चेट्ठति ॥2553 अर्थ-वे सब कुमानुष दो हजार (2000) धनुष ऊँचे होते हैं, मन्दकषायी, प्रियंगु सदृश श्यामल और एक पल्य प्रमाण आयु से युक्त होकर कुभोगभूमि में स्थित रहते हैं। 2. जैन तत्त्वविद्या (पूज्यमुनि श्री प्रमाणसागर जी द्वारा रचित ज्ञानपीठ प्रकाशन) पृष्ठ 86-87 में इस प्रकार कहा हैकुभोगभूमि में सभी मनुष्य और तिर्यंच युगलरूप में जन्म लेते हैं, और युगल ही मरते हैं...... इनमें से सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेने वाले मनुष्य तिर्यच सौधर्म, ईशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि कुभोगभूमि में तिर्यंच भी पाये जाते हैं, परन्तु विचारणीय विषय यह भी है कि जीवकाण्ड में जीवसमास के भेद वर्णन प्रसंग में मनुष्यों के भेदों में, कुभोगभूमि के मनुष्यों का वर्णन तो किया है, परन्तु तिर्यंचों के वर्णन में कुभोगभूमि में उत्पन्न तिर्यंचों का वर्णन क्यों नहीं किया। जिज्ञासा - षष्ठभक्त उपवास का अर्थ दो दिन का उपवास किया है, ऐसा क्यों ? समाधान नियमानुसार दिन में दो बार भोजन का विधान है, किन्तु उपवास धारण करने के दिन दूसरी बार का भोजन त्याग दिया जाता है और आगे दो दिन के चार भोजन भी त्याग दिये जाते हैं। इसप्रकार चूँकि दो उपवासों में पाँच भोजनबेलाओं को छोड़कर छठी बेला पर भोजन ग्रहण किया जाता है, अतएव षष्ठभक्त का अर्थ दो उपवास करना उचित ही है। उदाहरणार्थ यदि अष्टमी व नवमी का उपवास करना है तो सप्तमी की एक, अष्टमी की दो और नवमी की दो इस प्रकार पाँच भोजनबेलाओं को छोड़कर दशमी के दोपहर को छठी बेला पर पारणा की जायेगी। जिज्ञासा योग परिवर्तन और व्यापात परिवर्तन में क्या अन्तर है ? समाधान - विवक्षित योग का अन्य किसी व्याघात के बिना काल क्षय हो जाने पर अन्य योग के परिणमन को योग -जून 2002 जिनभाषित 23 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.524263
Book TitleJinabhashita 2002 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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