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________________ भूरामल से ज्ञानसागर आचार्य श्री विद्यासागर जी की मातृश्री का अपने पुत्र के प्रति सम्बोधन आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज खूब सधे हुए साधक थे।। जो समस्त परिग्रह से मुक्त होकर आत्मानुभूति में तत्पर है। उन्होंने अपना सारा जीवन जैनागम के गहन अध्ययन, चिन्तन | तत्त्वज्ञ तो कोई भी हो सकता है, पर वे तत्त्वद्रष्टा थे। वे शरीर और मनन में ही बिताया। ब्रह्मचारी, विद्वान भूरामल के नाम से | और आत्मा के पृथक्करण की साधना में तत्पर नि:स्पृह साधक विभिन्न आचार्य संघों में वे साधुजनों को स्वाध्याय भी कराते | और सच्चे भेद-विज्ञानी थे। रहे। अपनी आत्मा को साधने में निरन्तर लगे रहने वाले वे मैंने सुना है कि उनके पिता उन्हें बचपन में ही छोड़कर | अनोखे साधु थे। उन्होंने तनिक भी, कहीं कुछ भी छिपाने की चल बसे थे। अध्ययन का साधन न होने से वे अपने बड़े भाई के | गुंजाइश नहीं रखी। जो जैसा था, उसे उसी रूप में प्रकट कर साथ 'गया' चले गए। एक जैन व्यवसायी के यहाँ काम करने | दिया, इसलिये वे यथाजात नग्न दिगम्बर थे। मैं बड़ा हूँ या कोई लगे, पर मन तो ज्ञान के लिए प्यासा था। सो एक दिन वहाँ से छोटा है, इस तरह की ग्रंथि उनके मन में नहीं थी, इसलिए चलकर स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस पहुँच गए। दिन-रात | उच्चता और हीनता की ग्रंथियों से परे वे निर्ग्रन्थ थे। ग्रंथों का अध्ययन करते-करते स्वल्पकाल में ही न्याय, व्याकरण ग्रन्थ के हर गूढ़ रहस्य को, हर गुत्थी को सहज ही और साहित्य के विद्वान बन गए। सुलझा देना और अपने जीवन को जीवन्त-ग्रन्थ बना लेना, यह तब कौन जानता था कि बनारस की सड़कों पर अपनी | उनकी निर्ग्रन्थता की शान थी। अपने जीवन में उन्होंने जो भी पढ़ाई के लिए हर शाम घंटे भर गमछे बेचकर चार पैसे कमाने | लिखा वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य की वाला वह युवक संस्कृत-साहित्य का ही नहीं, वरन् समूचे जैनागम | रोशनाई से लिखा, तब जो भी उनके समीप आया वह निर्ग्रन्थ का मर्मज्ञ हो जाएगा। सचमुच, जिसका श्रम हर रात दीये में स्नेह | होने के लिए आतुर हो उठा। बनकर जला हो, उसे ज्ञान और वैराग्य का प्रकाश-स्तम्भ बनने । मैंने देखा है कि संसार के मार्ग पर, जहाँ लोग निरन्तर से कोई रोक भी तो नहीं सकता। प्रकाण्ड विद्वान होकर भी | विषय-सामग्री पाने दौड़ रहे हैं, वे अविचल खड़ें हैं और मोक्षमार्ग उन्होंने आचार्य शिवसागर जी महाराज के श्री-चरणों में समर्पित | पर, जहाँ कि लोगों के पैर आगे बढ़ नहीं पाते, वे निरन्तर आगे होकर मुनि-दीक्षा अंगीकार कर ली और एक दिन तुम्हें अपना बढ़ रहे हैं। अतीत की स्मृति और अनागत की आकांक्षा जिन्हें शिष्य बनाकर कृतार्थ कर दिया। उनकी अनेकों कृतियों के बीच | पल भर भी भ्रमित नहीं कर पाती, ऐसे अपने आत्म-स्वरूप में तुम पहली जीवन्त कृति थे। निरन्तर सजग और सावधान गुरु को पाकर तुम्हारा जीवन धन्य मैंने उनकी साधुता देखी है। वे उन अर्थों में साधु थे, | हो गया। जिन अर्थों में कोई सचमुच साधु होता है। भेद-विज्ञानी होना 'आत्मान्वेषी' से साभार साधुता की कसौटी है। वे भेद-विज्ञानी थे। भेद-विज्ञानी वह है | अभी-अभी दीक्षित होकर आ रहा हूँ अपने ज्ञानवृद्ध, अनुभववृद्ध और वयोवृद्ध गुरु के । पड़ गए कि इसका क्या अर्थ है? तब आचार्य महाराज ने सहज श्रीचरणों में बैठकर तुमने जो भी सीखा, उसे देखकर कोई भी भाव से समझाया कि "प्रतिक्रमण करके निर्दोष होकर अभीआसानी से कह सकता है कि यह ज्ञान अल्पवय में भी व्यक्ति अभी तो बाहर आया हूँ, सो मानो अभी दीक्षित हुआ हूँ।" को परिपक्व बनाने में सक्षम है। एक दिन शाम को प्रतिक्रमण | "प्रत्येक श्रमण दोषों से स्वयं को बचाकर आत्म-विशुद्धि करके आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज बाहर दालान में आकर | को प्राप्त करके नित-नूतन होता जाता है। दीक्षा के वर्ष गिनने से बैठे ही थे कि किसी ने पूछ लिया "महाराज, आप चिरदीक्षित क्या होगा? मैं चिरदीक्षित हूँ, ज्येष्ठ हूँ, यह अहंकार व्यर्थ है।। मालूम पड़ते हैं, आपको दीक्षा लिए कितने वर्ष बीत गए ?" | आत्म-शोधन ही दीक्षा की उपलब्धि है। उसे निरन्तर बनाए महाराज मुस्कराए और बोले कि अभी-अभी दीक्षित होकर आ | रखना ही सच्चा पुरुषार्थ है। सच्ची साधना है।" रहा हूँ। यह बात सुनकर सभी लोग चकित हुए और सोच में | 'आत्मान्वेषी' से साभार -जून 2002 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524263
Book TitleJinabhashita 2002 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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