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________________ समर्पण की अद्भुत बेला थी। अपने जिस शिष्य को आज तक | आत्म-साधना और समत्व के प्रति तुम पहले ही सजग थे। अब हाथ पकड़ कर लिखना-पढ़ना, बोलना और चलना सिखाया, | आचार्यत्व की गरिमा के अनुरूप सजगता और बढ़ गई है। पहले आज उसे ही अपना आचार्य बना लिया। इतना ही नहीं, अपना | अपने गुरु का हाथ थाम कर तुम चलते थे, अब तुम्हारा हाथ शेष जीवन उसके सुदृढ़ हाथों में सौंप दिया। जिसने सुना और | थामकर गुरु महाराज चलते हैं। बाहर से तो पूर्ववत् हाथ में हाथ जिसने देखा उसका मन भर आया। आँखें सजल हो उठीं। एक | दिखाई देता है, लेकिन अंतस् चेतना की गहराई में हुए परिवर्तन बार फिर श्रमणधर्म और श्रमणसंघ की जय-जयकार हुई। आज | के तुम स्वयं साक्षी हो। पूज्य ज्ञानसागर जी महाराज की विनय देखते ही बनती थी। वे | मोक्षमार्ग पर एक अकेले स्वयं चलना फिर भी आसान है, अपना सर्वस्व सौंपकर मानो पूर्ण-कामा हो गए थे। लेकिन स्वयं चलते हुए दूसरे के लिए चलने में सहयोगी बनना उन क्षणों में तुम्हारे चेहरे पर दमकता आत्म-तेज भले ही एकदम आसान नहीं है। सुबह से शाम और बहुत रात होने तक सभी ने देखा हो, पर श्रद्धा से भरी सजल आँखें कोई नहीं देख | तुम अपने गुरु की सेवा में अथक लगे रहते थे। तुम्हारे सारे पाया। मैं जानती हूँ कि ऐसे समय में तुम्हारा मन कितना भर आया आवश्यक उनकी सेवा में समा गए। मानो गुरु की सेवा ही आवश्यक होगा। तुम अपने ही भीतर के एकान्त में समाते चले गए होगे और हो गयी थी। उन्हें सहारा देकर आहार व निहार के लिए ले जाना सोच रहे होगे कि कहीं जरा-सा अवकाश, जरा-सी जगह मिले | और हाथ बढ़ाते ही उन्हें थाम लेना, इसमें तुम जरा भी आलस और अपने को छिपा लूँ। अपनी योग्यता का ऐसा सम्मान तुमने | नहीं करते थे। कभी नहीं चाहा। योग्यता पा लेना अपने आप में परिपूर्ण सम्मान गुरु महाराज भी सजग थे। अपने परिणामों की संभाल स्वयं करते और तुम्हारे द्वारा दिये जाने वाले सम्बोधन को ध्यान से सचमुच,कंचन और कामिनी को छोड़ना जितना आसान सुनते थे। जब कभी जाने-अनजाने तुम ग्रन्थ पढ़ते-पढ़ते चूक है, यश और ख्याति की लालसा को छोड़ पाना उतना आसान नहीं जाते, तो वे इशारा कर देते थे कि ठीक पढ़ो। उनकी इस सजगता है। पर इन क्षणों में तुम्हारे गुरु ने और स्वयं तुमने अपनी आत्म- और स्वभाव की ओर दृष्टि देखकर तुम आश्वस्त हो जाते थे। निर्मलता को पाने के लिए मान-सम्मान और यश-ख्याति सभी | सल्लेखना में यह आत्म-जागरूकता अनिवार्य है। की लालसा छोड़ दी। इस विशेषता के सामने सारे विशेषण फीके इस तरह सल्लेखना अबाध रूप में चलती रही। एक दिन मालूम पड़ते हैं। आज मन करता है कि कहूँ, तुम विशेषणों के वह भी आया जब सल्लेखना की वह साधना पूरी हुई। जीवन भर विशेषण हो। तुम्हें इस तरह निरन्तर ऊँचाइयाँ पाते और आगे बढ़ते आत्मस्थ रहने वाले पूज्य ज्ञानसागर जी महाराज समाधिस्थ हो देखती या सुनती हूँ, तब मन ही मन खुश हो लेती हूँ। भगवान से | गए। सल्लेखना के दिनों में तुमने जितनी निष्ठा और लगन के साथ प्रार्थना करती हूँ कि तुम जहाँ भी रहो, अच्छे से रहो। तुम भले ही अपने गुरु की सेवा की, उसे देखकर लोगों ने मुझसे इतना ही कहा मुझे अपनी माँ मत कहो, पर मैं तो अभी भी तुम्हारी माँ हूँ। तुम्हारे | कि अपने पिता से लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति पाने वाला बेटा भी शुभाशीष से कभी इन संबंधों के पार होने का प्रयास करूँगी। | इतनी सेवा नहीं कर सकता, जितनी तुमने अपने गुरु की, की है। तुम्हारे भीतर प्रकट हुए आचार्यत्व को प्रणाम करती हूँ। मोक्षमार्ग में परस्पर एक दूसरे साधक को सँभालना और रत्नत्रय देखती हूँ कि अभी तक तुम निश्चिन्त थे। गुरु का हाथ | में स्थिर रहकर आत्म-विशुद्धि बढ़ाते रहना, यही सम्यक्त्व की तुम्हें थामे था। अब जिम्मेदारी तुम्हारी है। अपने ही श्रीगुरु को पहचान है। फ़िर तुम तो उस समाधि-साधना के निर्यापक आचार्य सँभालना है। मोह-मुक्त होकर उनके आत्म-कल्याण में सहभागी बनना है। तुम इस दायित्व को समझ रहे हो। श्रमण होने के नाते । 'आत्मान्वेषी' से साभार सूक्ति यथोदयेऽह्यस्तमयेऽपि रक्तः श्रीमान विवस्वान विभवैकभक्तः। विपत्सु सम्पत्स्वपि तुल्यतैवमहो तटस्था महतां सदैव ॥ अर्थ- सूर्य जिस प्रकार उदयकाल में लाल रहता है, उसी प्रकार अस्त के समय भी रहता है। महापुरुष सुख और दुःख दोनों में एक समान रहते हैं। 'जयोदय' महाकाव्य १५/२) 16 जून 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524263
Book TitleJinabhashita 2002 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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