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वीतरागता की पराकाष्ठा
क्षमासागर जी
"यह वीतरागता की पराकाष्ठा थी। अहं के विसर्जन और समर्पण की अद्भुत वेला थी। अपने जिस शिष्य को आज तक हाथ पकड़कर लिखना-पढ़ना, बोलना और चलना सिखाया, आज उसे ही अपना आचार्य बना लिया।"
'आत्मान्वेषी' मुनिश्री क्षमासागर जी द्वारा आचार्य श्री विद्यासागर जी की मातृश्री के मुख से कहलवाया गया एक कथाग्रन्थ है, जिसमें परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी एवं उनके गुरु परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के लोकोत्तर जीवनवृत्तों का हृदयस्पर्शी चित्रण है।
आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने वीतरागता की जिस पराकाष्ठा का स्पर्श किया था, उसका हृदयद्रावक शब्दचित्र लेखक की भावुक, संवेदनशील लेखनी ने कागज पर उतारा है।
समय बीतता गया। यह सन् उन्नीस सौ बहत्तर की बात | परीक्षा थी। यही शिष्यत्व की पहचान थी। सो पूरे आत्म-विश्वास है, जब एक दिन तुम्हें अपने अत्यन्त समीप बिठाकर आचार्य | और आत्म-समर्पण के साथ तुमने अपना माथा आचार्य महाराज महाराज ने शान्त-भाव से कहा था कि "मेरी आयु का अन्त | के श्रीचरणों में रख दिया और पाया कि गुरु का वरदहस्त तुम्हें निकट है, मैं अपना आचार्य-पद तुम्हें देकर इस दायित्व से मुक्त | आश्वस्त और अभीत होने के लिए कह रहा है। होना चाहता हूँ।" इतने बड़े दायित्व की बात सुनकर तुम चकित | आचार्य महाराज को पहली बार इतने हर्ष-मिश्रित और हुए। तुमने सोचा भी नहीं था कि अपने गुरु के रहते हुए यह | विगलित स्वरों में कहते सुना गया कि "विद्यासागर ! तुम निश्चित दायित्व तुम्हें सँभालना होगा। सो तत्क्षण अपना माथा आचार्य होओ। मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा। मैंने तुम्हें वह सब महाराज के श्रीचरणों में रखकर तुमने अपनी असमर्थता प्रकट कर | सिखा दिया है जो मोक्षमार्ग पर चलने वाले साधक के लिए दी। अत्यन्त विनतभाव से इतना ही कहा कि "इन चरणों की | आवश्यक है। तुम्हें अब कहीं कुछ और सीखने नहीं जाना है। छाया में रहूँ, मुझे यह जो आपका सहारा है उसे बना रहने दें। मैं | अपने आत्म-स्वरूप में निरन्तर विचरण करते रहना और नि:संग आचार्य-पद के योग्य नहीं हूँ।"
रहकर भी श्रमणसंघ को गुरुकुल बनाना। जो मोक्षमार्ग पर चलने तुम्हारे इस. आत्मनिवेदन को सुनकर आचार्य महाराज के लिए समर्पितभाव से समीप आए उसे शरण देना और स्वयं क्षण भर को सोच में पड़ गए। पद के प्रति तुम्हारी निर्लिप्तता वे | अनासक्त रहकर अपने आचरण में तत्पर रहना।" जानते थे और यह भी जानते थे कि तुम आसानी से इस दायित्व आचार्य महाराज के द्वारा तुम्हें आचार्य-पद प्रदान करने को ग्रहण नहीं करोगे। यही विशेषता तो तुम्हें इस श्रेष्ठपद के योग्य | की खबर सब ओर फैलने लगी। लोग उत्सुकता से उस पावन साबित करती है।
क्षण की प्रतीक्षा करने लगे। नसीराबाद की माटी को इस आयोजन आचार्य महाराज ने कुछ सोचकर पुनः कहा कि "देखो | का सौभाग्य मिल गया। आचार्य महाराज ने समस्त संघ की अंतिम समय आचार्य को अपने पद से मुक्त होकर, अन्य किसी उपस्थिति में तुम्हें आचार्य-पीठिका पर बिठाकर आचार्य-पद पर संघ की शरण में, सल्लेखनापूर्वक देह का परित्याग करना चाहिए।। प्रतिष्ठित करने और स्वयं उस पद से मुक्त होने की सारी विधि यही संयम की उपलब्धि है और यही आगम की आज्ञा भी है। सहज ही सम्पन्न कर दी। जय-जयकार की ध्वनि से वातावरण अब मैं इतना समर्थ नहीं हूँ कि अन्यत्र किसी योग्य आचार्य की गूंज उठा। शरण में पहुँच सकूँ, सो मेरे आत्म-कल्याण में तुम सहायक बनो अचानक सबने देखा कि तुम्हें आचार्यपद पर प्रतिष्ठित और आचार्य-पद सँभालकर मेरी सल्लेखना कराओ। यही मेरी | करने वाले गुरु ज्ञानसागर तुम्हारे सामने बैठकर कुछ निवेदन कर भावना है।"
रहे हैं। सब ओर सन्नाटा छा गया। अत्यन्त दृढ़, लेकिन विनम्र इतना सब सुनकर भी तुमने स्वीकृति नहीं दी, तब आखिरी | स्वरों में श्री ज्ञानसागर जी महाराज को सभी ने यह कहते सुना कि बात उन्होंने कह दी कि "आज मैं तुमसे गुरु-दक्षिणा माँगता हूँ | "हे आचार्य महाराज! मैं अपना अंतिम समय समीप जानकर विद्यासागर, और गुरुदक्षिणा में यही चाहता हूँ कि तुम सहर्ष | आपके श्रीचरणों में सल्लेखना की याचना करता हूँ। आप मुझ पर आचार्य-पद का गुरुतर दायित्व सँभाल लो।" अब तुम निरुपाय | अनुग्रह करें।" हो गए। अपने गुरु के प्रति अगाध स्नेह और समर्पण की मानो यह यह वीतरागता की पराकाष्ठा थी। अहं के विसर्जन और
-जून 2002 जिनभाषित 15
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