SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की पूजा मुनि श्री योगसागर जी (वसन्ततिलका छन्द) सर्वस्व त्याग करके वह योग साधा, श्री पूज्य पाद भव तारक ज्ञान-सिन्धू, हैं मोक्ष के निकट ही जिसमें न बाधा ॥ पूजा करूँ हृदय से तव पाद वन्दूँ। ॐ ह्रीं श्री आचार्यज्ञानसागरेभ्यः मोक्ष फलप्राप्तये फलं । अध्यात्म दीप जग में तुमने जलाया, वैराग्य-मूर्ति लख के मन शान्त होता, विद्या सुसागर महाऋषि को बनाया।। जो भेद ज्ञान स्वयमेव सुजाग जाता। ऊँ ह्रीं श्री आचार्यज्ञानसागर मुनीन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् विश्वास है वरद-हस्त हमें मिला है, ऊँ ह्रीं श्री आचार्यज्ञानसागर मुनीन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं संसार चक्र जिसमें भ्रमना नहीं है ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्यज्ञानसागर मुनीन्द्र अत्र मम सन्निहितो भवभव वषट् | ॐ ह्रीं श्री आचार्यज्ञानसागरेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घम्। जो ज्ञान-गंग-जल में डुबकी लगाते, दोहा यों जन्म मृत्यु स्वयमेव विलीन होते। आशीष दो यह मुझे, बन ज्ञान साधू, ज्ञानार्णव आचार्य की, गाता हूँ जयमाल, मै भी समाधि जल में डुबकी लगा लूँ॥ सम्यक्त्व कमल खिल उठे, खुलता मन का जाल। ऊँ ह्रीं श्री आचार्यज्ञानसागरेभ्य: जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं चित्त पपीहा के लिये, ज्ञानामृत की धार, अंगार सी विषयराग चहूँ दिशों में, मोह जहर अपहार को, गरुड मन्त्र सा वार । व्यामोह चित्त मृग ज्यों भटके वनों में। जयमाला संसार में यह छवि सबको रमाती, ज्यों चाँदनी शरद पूनम की सुहाती। वात्सल्य का कमल पुष्प खिला हुआ था, वैराग्य केसर सुगन्ध बहा रहा था। ॐ ह्रीं श्री आचार्यज्ञानसागरेभ्यः भव आताप विनाशनाय चन्दनं । जो ज्ञान नीर जिस बीच सुशोभता था, सिद्धान्त के नयन से भलि-भाँति जाना, हैं विश्व के सब पदार्थ अनित्य माना। संवेग का हरित पत्र लिया हुआ था। मैं कोटि-कोटि उर से करता प्रणाम, जो धर्म ही अमिट है शरणा दिलाता, जो नाम के स्मरण से मिलता सुशर्म। पीयूष सा परम अक्षय सौख्यदाता ।। ॐ ह्रीं श्री आचार्यज्ञानसागरेभ्यः अक्षय पद प्राप्तये अक्षतं । जो ख्याति लाभ जन-रंजन से परे थे, है नागराज-सम काम सता रहा है, निस्वार्थ पूर्ण अति उज्ज्वल संयमी थे। सारा शरीर विष से जल सा रहा है। थे ज्ञान-वृद्ध, तप-वृद्ध, वयो-सुवृद्ध, ज्यों चन्द्रकांत मणि शीतल सौम्य वाली, थे कल्पवृक्ष सम शीतल शान्त शुद्ध । त्यों शील शीतल प्रदायक धर्म वाली। अध्यात्म के अमृत में निज को रमाते, ॐ ह्रीं श्री आचार्यज्ञानसागरेभ्य: कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं ॥ ऐसे महाश्रमण का गुणगान गाते ।। घी दूध औ सरस व्यंजन चाहती है, साहित्य का सृजन संस्कृत में किये हैं, लालित्यपूर्ण मनमोहक लेखनी है। तो भी क्षुधा उदर की मिटती नहीं है। आत्मानुभूति रस से वह तृप्त होती, है आपका इक जयोदय काव्य न्यारा, आश्चर्य है अतुलनीय महान प्यारा ॥ जो ज्ञान-ध्यान-तप से वह प्राप्त होती॥ ऊँ ह्रीं श्री आचार्यज्ञानसागरेभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपं । आचार्यवर्य शिवसागर थे कृपालु, थे पट्टशिष्य उनके सब में दयालु। जैनेन्द्र यज्ञ तप को अपना लिया है, अन्वर्थ नाम रख के गुरु ने उठाया, दुष्टाष्टकर्म-दल तो जलने लगे हैं। आनन्दगन्ध निज में बहने लगी है, श्री ज्ञानसागर सुनाम हमें सुहाया । ॐ ह्रीं श्री आचार्यज्ञानसागरेभ्यः अनर्घ्यपद प्राप्तये महाय॑म् निर्गन्ध वस्तु जग की लगने लगी है। ऊँ ह्रीं श्री आचार्यज्ञानसागरेभ्यः अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं । दोहा शुद्धात्म वृक्ष पर ही फल मोक्ष पाता, गुरु ही तो शिव रूप है, शिव ही है गुरु रूप। त्रैलोक्य में अनुपमम् रसवान होता। शिव गुरु का ना भेद है, गुरु ही शिव का रूप ॥ 18 जून 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524263
Book TitleJinabhashita 2002 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy