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________________ देते हैं । कवि द्वारा की गई दर्शन के सिद्धान्तों की प्रस्तुति दार्शनिकों । गया है। और कवियों दोनों की रुचियों को संतुष्ट करने में सक्षम है। काव्य में गद्य-पद्य का सुन्दर संतुलन है। इस काव्य का इस काव्य का प्रकाशन 1968 में प्रकाशचन्द्र जैन, ब्यावर | समृद्ध कलापक्ष अपने भावपक्ष को अच्छी तरह अभिव्यक्त करता द्वारा कराया गया। है। इसका प्रकाशन 1966 में प्रकाशचंद्र जैन, ब्यावर द्वारा कराया सुदर्शनोदय गया है। यह नौसर्गों का एक छोटा-सा महाकाव्य है। इस काव्य | मुनि मनोरंजनाशीति के द्वारा कवि ने पंच नमस्कार मंत्र के महात्म्य को अवगत कराने यह एक मुक्तक काव्य है, जिसमें अस्सी पद्य हैं। इसमें का प्रयास किया है। साथ ही पातिव्रत्य, एकपत्नीव्रत, सदाचार | दिगम्बर मुनि एवं आर्यिका की चर्या और विशेषताओं का वर्णन आदि मानवीय जीवन मूल्यों की शिक्षा दी है। कपिला ब्राह्मणी की | हैं। पूरा काव्य उपदेशात्मक है। विषय के अनुसार इसकी भाषा कामुकता, अभयमती का घात-प्रतिघात, देवदत्ता वेश्या की चेष्टाएँ | प्रसाद गुण सम्पन्न है। पद्यों का अर्थ आसानी से हृदयंगम हो जाता और काव्य के नायक सुदर्शन की इन सब पर विजय काव्य के | है। इसका प्रकाशन विद्यासागर साहित्य संस्थान, पनागर, जबलपुर मार्मिक स्थल हैं। ये सभी स्थल पाठक को सच्चरित्र की शिक्षा देते से 1990 में हुआ है। ऋषि कैसा होता है? इस काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है इसके गीत । साहित्य, यह छोटी-सी अप्रकाशित कृति है। इसमें चालीस पद्य हैं। संगीत एवं दर्शन का सम्मिश्रण काव्य को उत्कृष्ट बनाने में सहायक इसमें कवि ने ऋषि के स्वरूप एवं चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के हुआ है। अन्तर्द्वन्द्व, प्रसन्नता, भक्ति, प्रेम इत्यादि मनोभावों को मार्ग का प्ररूपण किया है। प्रकट करने में सहायक विभिन्न राग-रागनियों की शैलियों में बद्ध | सम्यक्त्वसार शतक इन गीतों का प्रयोग कवि का अद्भुत प्रयास है। यह एक उच्च श्रेणी का आध्यात्मिक काव्य है। समीचीन कथा के माध्यम से प्रस्तुत इस ग्रंथ की शिक्षाएँ कोरा | दृष्टि ही मुक्ति का प्रथम सोपान है, यह बात कवि ने बड़ी सरलता उपदेश न रहकर पाठक के हृदय पर छा जाने की क्षमता रखती हैं। | से पूरे काव्यमाधुर्य के साथ इस ग्रंथ में प्रस्तुत की है। दृष्टि की ऐसी विशेषताएँ अन्य काव्यों में प्रायः दुर्लभ होती हैं। इस महाकाव्य निर्मलता ज्ञान और आचरण की पवित्रता, यही तीनों मिलकर का प्रकाशन 1966 में प्रकाशचंद्र जैन, ब्यावर द्वारा कराया गया। प्राणी मात्र के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इसे ही जैन भद्रोदय दर्शन में रत्नत्रय या मोक्षमार्ग कहा गया है। इस समीचीन दृष्टि के इस काव्य में नौ सर्ग हैं। इसका अपरनाम 'समुद्रदत्त चरित' अभाव में ही संसार का प्रत्येक जीव बाह्य इन्द्रिय विषयों में सुख है। इसमें काव्य-नायक भद्रमित्र के माध्यम से अस्तेय महाव्रत की मानकर निरन्तर दुःख उठा रहा है। कवि ने जैन दर्शन की गहराइयों शिक्षा दी गई है और चोरी एवं असत्य भाषण के दुष्प्रभाव से बचने को अपनी सरल भाषा द्वारा सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य बनाने के लिए पाठकों को सावधान किया गया है। का प्रयास इस काव्य के माध्यम से किया है। मोक्षमार्ग के जिज्ञासुओं इस काव्य को रचने का उद्देश्य किसी रोचक घटना विशेष के लिये यह अत्यंत उपयोगी है। इसका प्रकाशन श्री दिगम्बर जैन को प्रस्तुत करना नहीं है। कथा तो काव्य के उद्देश्य अस्तेय की | समाज, हिसार से 1956 में पहली बार हुआ। शिक्षा की सहायिका बन कर आयी है। पूरा काव्य पढ़ने पर एक | प्रवचन सार (अनुवाद कृति) ही निष्कर्ष निकलता है "सत्यमेव जयते, नानृतम्"। प्रस्तुत ग्रन्थ मौलिक रूप से आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी यह एक ऐसा काव्य है, जिसमें महाकाव्य और चरित | द्वारा प्रणीत है। इसकी भाषा प्राकृत है। इसमें तीन अधिकार काव्य की विशेषताएँ साथ-साथ दृष्टिगोचर होती हैं। यह काव्य ज्ञानाधिकार, ज्ञेयाधिकार और चारित्राधिकार हैं। आचार्य श्री आबाल वृद्ध सभी के लिए हितोपदेशात्मक है। इसका प्रकाशन ज्ञानसागर जी ने प्राकृत भाषा में रचित इस ग्रंथ की समस्त गाथाओं दिगम्बर जैसवाल जैन समाज, अजमेर द्वारा 1969 में हुआ है। का संस्कृत भाषा के अनुष्टुप श्लोकों में छायानुवाद किया है। साथ दयोदय चम्पू ही उनका हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश भी लिख दिया है। इस ___ अन्य प्रचलित चम्पू काव्यों की अपेक्षा यह काव्य सरल तरह यह ग्रंथ कविवर की मात्र हिन्दी रचना न रहकर संस्कृत एवं और लघुकाय है। यही इस काव्य की नवीनता है। इस काव्य के हिन्दी मिश्रित रचना हो गई है। "गद्य कवीनां निकषं वदन्ति" इस माध्यम से कवि ने अहिंसाव्रत की शिक्षा देनी चाही है। समाज में | रूप में इस ग्रंथ का गद्य आदर्श, सरल और सरस है। अहिंसा व्रत का पालन सब करें, इसीलिये इस चम्पू काव्य में | इस ग्रंथ के द्वारा जैन दर्शन के प्रमुख विषयों द्रव्य, गुण, सामान्य धीवर के द्वारा जिसकी आजीविका ही हिंसा से चलती है. | पर्याय, अशुभ, शुभ, शुद्धोपयोग, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप अहिंसा व्रत का पालन करवाया गया है और इस व्रत के प्रभाव से | सत् का स्वरूप एवं सच्चे साधु के कर्तव्य आदि को आसानी से अगले जन्म में वह किस प्रकार, कई बार मृत्यु से बचा यह दर्शाया | समझाया जा सका है। यह ग्रंथ श्री महावीर सांगाका पाटनी, 10 जून 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524263
Book TitleJinabhashita 2002 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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