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________________ ३४२ जैनहितैषी [भाग १४. करते हैं । आशा है दूसरी स्त्रियाँ भी आपके इस विचारोंसे प्रकट है कि वे सेठीजीको कितने .. दानका अनुकरण करेंगी और समयोपयोगी गौरवकी दृष्टिसे देखते हैं और उनके जैनकार्योंमें धन व्यय करना सीखेंगी। धर्मविषयक ज्ञानको कितना ऊँचे दुर्जेका समझे ५-सेठी अर्जनलालजीके विषयमें हुए हैं। साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि वे अंतर्जातीय विवाहोंको अच्छा मानते हैं । इतने शीतलप्रसादजीके विचार ।। पर भी उनके पत्र जैनमित्रमें जो कभी कभी - श्रीमान् ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद ने सेठी कछ विरुद्ध विचार निकला करते हैं उन्हें अर्जुनलालजीको, उनके पत्रके उत्तरमें, जो पत्र किसी दूसरी ही बाह्य पालिसी पर अवलम्बित २८ जून सन् १९२० को देहलीसे भेजा था समझना चाहिये । हो सकता है कि उनका वह सत्योदयके हालके अंक नं०७-८ में मुद्रित मल कारण लोकानुरंजन हो और उसके द्वारा हुआ है। इस पत्रमें ब्रह्मचारीजीने सेठीजीके ही अपने सम्मानकी रक्षा की जाती हो । . . . जैनधर्मविषयक ज्ञानके प्रति अपने जो विचार ६-विशेष युद्धकी तय्यारी । प्रकट किये हैं और उनकी पुत्रकि विवाहसम्बंध बम्बईमें दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटीकी स्पेशल पर जिस सम्मतिका इजहार किया है उस - सबको हम अपने पाठकोंके अवलोकनार्थ नीचे " मीटिंग हो गई । इसमें दूर दूरसे समाजके बहुतसे कर्णधार पधारे थे, जिनका मिशन उद्धृत करते हैं: तीर्थोकी रक्षा पर विचार करना था। विचार आप जैनसिद्धान्तके मर्मको जाननेवाले गया और उसमें किसीको भी यडके सिवाय हैं तथा जीवन कैसे सार्थक करना इस बातसे रक्षाका कोई दूसरा उपाय सूझ नहीं पड़ा ! भी पूर्ण विज्ञ हैं । मैं आपको किसी प्रकारकी बल्कि मीटिंगका यही निष्कर्ष निकला कि शिक्षा देने का पात्र अपनेको नहीं समझता हूँ।” अभी तक धनाभावके कारखा काफी यद्ध नहीं ____“ आपने जो अपनी पुत्रीका विवाह एक हो सका और विना पूर्ण युद्धके सफल मनोरथ एमड़ व्याक्ति के साथ किया, सो भी जैनपद्धतिके होना असंभव है, अतः श्वेताम्बरोंके साथ विशेष अनुसार, (वह) किसी भी तरह जैनशास्त्रके युद्ध करने के लिये, प्रचुर धन एकत्र होना चाहिये । विरुद्ध नहीं है । जैन जाति ८४ जातियोंमें विभक्त कमेटीने फिलहाल सिर्फ २० लाख रुपयेका होकर अपनी २ जातिमें योग्य सम्बंध न फंड एकत्र करनेका प्रस्ताव पास किया है ! पाकर जो धीरे धीरे नष्ट हो रही है उसकी जब दिगम्बरोंमें २० लाख रुपया एकत्र होगा रक्षाके उपायका एक नमूना आपने पेश किया तब श्वेताम्बरोंमें चालीस लाख रुपया इकट्ठा हो है । मेरी अन्तःकरणकी भावना है कि जैसे जाना कोई बड़ी बात नहीं है । इससे ऐसे जयपुरके पं0 जयचंद, टोडरमल, दौलतराम, लक्षण पाये जाते हैं कि अब जैनसमाजमें सदासुख आदिने जैन जातिका उपकार किया युद्धकी आग और भी ज्यादह भड़केगी और है उससे कहीं अधिक उपकार आपकी आत्मा अपना वह उग्ररूप धारण करेगी, जिसमें जैनितथा मन वचन कायके द्वारा संपादन हो योंकी रही सही शांति सब नष्ट हो जायगी, तथा आपके द्वारा जैनधर्म व उसका अहिंसा और ये लोग घरू झगडामें अपनी शक्तिके तत्त्व जगतमें विस्तरै ।" दुरुपयोग द्वारा न कुछ देशके काम आ सकेंगे ब्रह्मचारीजीके इन प्राइवेट तथा अन्तरिक और न अपना ही भला कर सकेंगे । नहीं For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.522883
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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