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________________ ३४० जैनहितैषी [भाग १४ कि वे शास्त्रोंकी उक्त आज्ञाओंको नहीं मानते ? भी परिवर्तन नहीं हुआ-बल्कि पिछले वर्षोंकी दोनोंमेंसे एक बात जरूर स्वीकार करनी होगी। नीतिसे भी उसकी इस वर्षकी नीतिमें कोई खास बम्बई पंचायतकी इस अनुचित कर्रवाई पर फर्क नहीं पड़ा-हाँ, इतना जरूर है कि पिछले यद्यपि बहुत कुछ युक्तिपूर्वक लिखा जा सकता वर्षों की अपेक्षा इस वर्ष जैनाचार्योंके शासनहै, परंतु यहाँ हमें उसकी कोई विशेष आलोचना भेदको दिखलानेवाले कुछ नये ढंगके लेख जरूर करना इष्ट नहीं है, सिर्फ सूचनाके तौरपर ये निकाले गये हैं । यदि संभा वास्तवमें इन कुछ पंक्तियाँ लिखी गई हैं । आशा है बम्बईकी लेखोंसे ही भयभीत होती है, इन्हें हा जैनधर्मके उक्त पंचायत अपनी कार्रवाई पर फिरसे विचार विरुद्ध और जैनधर्मकी इमारतको धराशायी करेगी और जिस प्रकार एक निष्पक्ष विचार- करनेवाले समझती है तो कहना होगा वान् जज तजवीज सानी ( Review) में-पुन- सभाका सत्यस बिलकुल प्रेम नहीं हैं, सत्यक र्विचार प्रसंगमें-अपने ही पूर्व फैसलेको लौट- सामने उसकी आँखें चौधियाती हैं, वह सत्यकी कर यशका भागी बनता है उसी प्रकार पंचा- दुश्मन है और इस लिये उसने अपनी इस यत भी प्रकृत विषय पर गहरा विचार करके कार्रवाईके द्वारा सर्वसाधारणको यह बतलानेकी अपने पूर्व प्रस्तावको रद्द करेगी, और इस तरह चेष्टा की है कि, सच्ची बात मत कहो-सच्ची अपनी विचारपटुता तथा निष्पक्षपातताका सर्व बातोंके कहनेसे जैनधर्म स्थिर नहीं रहेगा !" साधारणको परिचय देगी। __ क्यों कि इन लेखोंमें दिगम्बर जैनशास्त्रोंसे जो कुछ भी प्रमाण वाक्य उद्धृत किये गये हैं, २-दृष्टि-विकार। और जिनसे बहुत स्पष्टताके साथ आचार्योंका मालूम होता है कलकत्तेकी दिगम्बर जैन परस्पर शासनभेद पाया जाता है, उन्हें कोई सभाका दृष्टि-विकार दिन पर दिन बढ़ता जाता गलत साबित नहीं कर सकता-यह सिद्ध है । पहले उसे 'सत्योदय' और 'जातिप्रबो- नहीं कर सकता कि वे वाक्य स्वयं लेखकद्वारा घक' ये दो पत्र ही भयंकर तथा उसकी श्रद्धा- कल्पित किये गये हैं और उक्त ग्रंथोंमें देवीके मंदिरको गिरा देनेवाले दिखलाई देते मौजूद नहीं हैं । परंतु ये लेख तो इस थे, परंतु अब कुछ ही दिन बाद, जैनहितैषी . र वर्षके प्रथम अंकसे ही निकलने प्रारंभ हुए भी उसे वैसा ही नजर आने लगा है-सभाकी हैं और जिस समय 'सत्योदय' आदिकके निर्बल और विकृतदृष्टिमें अब उसका मधुर __ संबंधमें सभाने प्रस्ताव पास किया था उस समय तथा हितकर तेज भी नहीं समाता, वह भी उसे दो लेख निकल चुके थे, बादमें, हितैषीसम्बंधी कष्टकर बोध होता है-और इस लिये अब उसने दूसरे प्रस्तावके पास होने तक, और कोई लेख उसकी तरफसे भी आँखें बंद कर लेनेका उस प्रकारका नहीं निकला । ऐसी हालतमें इन विधान किया है अर्थात्, एक प्रस्तावके द्वारा उक्त लेखोंके कारण सभाके कुपित, शुभित अथवा पत्रोंके समान उसे भी अजैन पत्र करार देकर भयभीत होने आदिकी कोई बात समझमें नहीं उसके पढ़नेका निषेध किया है। जहाँतक हम आती-यदि इनके कारण ऐसा हुआ होता तो समझते हैं और दूसरे विद्वान् समझ सकते हैं, है वह सत्योदयादि संबंधी प्रथम प्रस्तावके समय ही । जैनहितैषीकी जो नीति इस वर्षके शुरूमें थी १ ता० २१ अप्रेल सन् १९२० को - वही अबतक बराबर चली आती है-उसमें जरा २ ता० २३ जुलाई १९२० तक (जैनमार्तड । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.522883
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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