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________________ जैनहितैषी [भाग १४ विधवा-विवाह-खण्डन। समालोचनाका औचित्य सिद्ध करूँगा। तर्क तीर्थजी फरमाते हैं कि सिंह एक ही बार संभोग करता है, कदली ( केलं) एक ही बार फलती (ले०-श्रीयुत नाथूराम प्रेमी।) है, स्त्रीको एक ही बार तेल चढ़ता है अर्थात् वह श्रीयुत पं० झमनलालजी तर्कतीर्थने अभी एक ही बार परण सकती है और राणा हमीरकी कुछ ही समय पहले कलकत्तेके 'पद्मावती प्रतिज्ञा भी एक ही हो सकती है, और इस दलीपुरवाल' नामक मासिकपत्रमें 'विधवा-विवाह- लसे पण्डितजी यह सिद्धान्त गढ़ डालना खण्डन ' नामका एक लेख लिखा था। यह चाहते हैं कि कोई स्त्री दूसरी बार व्याही लेख पत्रसम्पादक लेखक और उनके अनु- ही नहीं जा सकती । सचमुच पण्डितजीकी यायियोंको इतना पसन्द आया कि उन्हें उसे तर्कतीर्थता बड़ी ही जबर्दस्त है ! यदि पण्डितजी विशेष रूपसे प्रचार करनेकी आवश्यकता प्रतीत विवाहित हैं तो मैं उनसे पूछता हूँ कि आप हुई और तदनुसार अब वह जुदा पुस्तकाकार अपने माने हुए सिंहके आदर्शके अनुसार सारे छपा लिया गया है । इसकी जो समालोचनायें जीवनमें एक ही बार संभोग करके सन्तुष्ट हो जैनमित्र आदि पत्रोंमें प्रकाशित हुई हैं, उन्हें गये हैं या नहीं ? यदि वे विवाहित हैं तो उन्हें तो पाठक भी पढ़ चुके होंगे और निबन्ध- इसका उत्तर नकारमें ही देना पड़ेगा । और लेखक भी; परन्तु इधर हमारे गुजराती सह- यदि विवाहित नहीं हैं तो उन्हें कहना पड़ेगा योगी जैनहितेच्छ (सितम्बर सन् १९२०) ने कि मेरे माने हुए नीतिधर्मके अनुयायी गृहस्थ इस पुस्तककी जो समालोचना की है, उसे जीवनमें एक ही बार स्त्रीसंभोग करके तृप्त शायद ही किसीने पढ़ा हो, अतएव हम यहाँ नहीं हो सकते। और यदि यह ठीक है तो हम उसका अनुवाद प्रकाशित कर देते हैं। हमें आशा पण्डितजीके ही न्यायसे कहेंगे कि स्वयं पण्डिहै कि जो लोग पूर्वोक्त मधुर समालोचनाओंका तजी और उनकी पसन्द की हुई उच्चनीतिके उपभोग कर चुके हैं उन्हें यह तीखी और माननेवाले गृहस्थ एक तिर्यचसे भी बदतर हैं, चटपटी समालोचना बहुत अरुचिकर न होगी। अतएव मनुष्यवर्गमेंसे उनका बहिष्कार कर डालना “विधवा-विवाहखण्डन । लेखक, पं० चाहिए। क्यों नहीं ? सिंह जो तिर्यच है वह झम्मनलालजी तर्कतीर्थ, कलकत्ता, मूल्य तीन तो सारी जिन्दगीमें एक ही बार संभोग करे आने । बेचारे पण्डितजी अभी तक सौ वर्ष पहले- और धर्मशास्त्री मनुष्य प्रतिदिन या प्रति महीने की पुरानी दलीलोंमें ही मस्त हैं। उन्हें खबर ही करे, यह तो तिर्यचसे भी बुरा काम है और इस . नहीं कि ये भद्दी दलीलें हजारों बार काटी गई लिए इन पण्डितजीको मनुष्यसमाजमेंसे क्यों न हैं और कभीकी साफ कर दी गई हैं। यदि अब खारिज किया जाय ? यह बात मैं मानता हूँ उनका कहीं भी अस्तित्व है तो केवल तर्कतीर्थ कि केलेका झाड़ एक ही बार फलला है, परन्तु पण्डितोंके मास्तष्कमें । हमें तो अब ये तर्कतीर्थ साथ ही तर्कतीर्थजीसे पूछता हूँ कि क्या पण्डित दुनियाके लिये भाररूप ही प्रतीत होते आपको यह खबर नहीं है कि दूसरे ऐसे भी हैं । इन बेचारोंमें जान पड़ता है कि सामान्य झाड़ हैं जो अनेक बार फलते हैं और फिर भी बुद्धि ( Common Sense ) का भी टोटा झाड़के वर्गमेंसे न उनका बहिष्कार ही किया है । एक उदाहरण देकर मैं अपनी इस कठोर जाता है और न वे वारंवार फलनेसे रोके ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522883
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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