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अङ्क १०-११ ] जैन समाजकी दशा और उसके सुधार के उपाय ।
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सोचने, विचार करने और अनुभव करनेकी आविर्भाव होता गया । दिगम्बर समाजमें सबसे जरा भी इच्छा नहीं होती । स्याद्वाद ' पहले भा० दि० जैन महासभा, और दो एक शब्द केवल कहने मात्रके लिये रह गया है । विद्यालयोंकी स्थापना हुई। बाद में प्रांतिक सभास्याद्वाद के द्वारा वे अपने संप्रदाय और पंथके ओंका जन्म हुआ । दो एक पत्र भी निकलने विरोधको दूरकर एक नहीं हो सकते प्रत्युत, लगे । पहले पहले शिक्षाप्रचारका ही उक्त सभाओं स्याद्वादका दुरुपयोग कर धर्मके असली सिद्धां और पत्रोंमें खूब आंदोलन होता रहा । साथमें तोंसे सदैव अलग रहनेकी कोशिस किया जैनग्रन्थ भी छपने प्रारम्भ हो गये । तीर्थोंकी करते हैं । जैन जनताने अपने अपने पंथों रक्षा और प्रबन्धके लिये कमेटी बन गई। जगह और संप्रदाय के क्रियाकाण्डों को जानकर उसकी जगह बोर्डिंग और पाठशालाएँ भी खुलने लगीं । हठ कर लेना ही सम्यक् ज्ञान तथा श्रद्वान इसी प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी उक्त प्रकामान लिया है और क्रियाकाण्डकी ओटमें रकी सभासुसाइटियाँ और भिन्नभिन्न संस्थाएँ मिथ्यारूढियों पर चलना ही चारित्र समझ खुलने लगीं। इन संस्थाओंके प्रारम्भमें, जबरक्खा है । इन्हीं बातोंसे जैनसमाजकी बड़ी तक उनके कार्यकर्त्ता योग्य रहे तबतक समाअधोगति हो रही है । सब जैन अपने अपने जका उक्त संस्थाओंसे गाढ़ प्रेम रहा । किन्तु सांप्रदायिक ग्रंथोंके क्रियाकाण्डके अनुसार ही समयकी गति से जैसे जैसे शिक्षाका थोड़ा अपना अपना आचरण रखते आ रहे हों, यह बहुत प्रचार होता गया, सभा सुसाइटियों की बात भी नहीं है । ग्रंथोंकी बातें तो सिर्फ अन्य भरमार होती गई और वह भी यहाँ तक कि पंधों से विरोध करनेके ही लिये हैं । आचरण समाजको उनका अजीर्णसा हो गया, उनके तो यही है कि सिर्फ अपने स्वार्थसाधनके कार्यकी ओर ध्यान देते हुए जनताको फल की भीतर जो जो बातें गर्भित हों उन्हींका वर्ताव आशां कम होने लगी, दूसरे चंदा देते देते किया जाय, बाकी श्रद्धा और झगड़नेके लिये लोग ऊब गये। बाद में कई संस्थाओं की कलई अलग रख दी जायँ । इसी पंथाचार की ओटमें खुलना प्रारंभ हुआ । इससे लिखे पढ़े लोगों का जैन समाज ने अपनी परंपराकी सामाजिक रूढ़ि - प्रेम सामाजिक संस्थाओंसे कम होने लगा । योंको भी धर्माचरणका स्वरूप देकर उन पर इसी अर्सेसे जैनपत्रोंमें विवादग्रस्त और आक्षेमुहर लगा दी है । पक लेख निकलना शुरू हो गये । दलबन्दियाँ प्रारम्भ हो गई । अर्थात् धीरे धीरे लिखे-पढ़े लोग भी परस्पर बिछुड़ते गये । इसका फल यह हुआ कि कुछ समय पहले छापेका प्रचारक और छापेका विरोधी ऐसे दो दल उत्पन्न हुए । इनके अनंतर संस्कृतज्ञोंका पंडितदल और अंग्रेजीके मर्मज्ञोंका बाबूदल बना । ये दोनों दल वर्तमानमें जारी हैं । इस तरह इन सभा सुसाइटियों और अन्यान्य संस्थाओंकी भरमारसे तथा दलबन्दियोंसे और भी अधिक भेदभाव बढ़ गया है। इससे धर्मकी उन्नति और प्रचार होना तो दूर रहा
यह तो हुई साम्प्रदायिक पंथभेदोंकी बीमा'रीकी बात; अब विशेष रूपसे जैनसमाजके नये भेद प्रभेदों को देखिये । जबसे भारतवर्ष में पश्चिमी सभ्यता और शिक्षाका जोर शोरसे प्रचार हुआ, तबसे जैनसमाजपर भी इन बातोंका कुछ न कुछ प्रभाव पड़ता ही गया । धार्मिक उन्नति, सामाजिक सुधार और संगठन तथा शिक्षाप्रचार के लिये जैनसमाजमें भिन्न भिन्न सभा - सुसाइटियाँ, शिक्षा प्रदान करनेवाली • संस्थाएँ, और जैनसाहित्यप्रकाशक संस्थाओंका
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