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पातक समझते हैं । तेरापंथी पंडित आम्नायके समझे जाते हैं । पं० टोडरमलजी, पं० जयचंदजी आदिके समयसे इस पंथकी उत्पत्ति बतलाई जाती है । इस पंथमें और बीसपंथमें केवल आधारोंकी थोड़ीसी भिन्नता है । बीसपंथी वस्त्रधारी भट्टारकोंको अपना गुरु मानते हैं और उन्हींकी आज्ञा प्रमाण मानते हैं । दूसरे, बीसपंथी लोग रात्रिमें पूजनाभिषेक करते हैं, और पूजनकी सामग्रीमें सचित्त फूल, फल, चढ़ाते हैं तथा पंचामृत - दूध, दही, घृत, शक्कर, और केशरमिश्रित जल—से अभिषेक करते हैं । इसके अतिरिक्त नवग्रहपूजन, पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि देवी देवताओंकी आराधना करते हैं । तेरापंथी इन सब बातों का निषेध करते हुए दिनको ही पूजनादिक कर लेते हैं। पूजनकी सामग्री अचित्त लेते हैं । पंचामृतकी जगह केवल जल, सुगंध ( केशरमिश्रित जल ) का अभिषेक करते हैं । पहले दिगम्बर मुनियोंको अपने गुरु और साधु मानते थे, परन्तु वर्तमानमें ऐसे मुनियोंका अभाव है; इसलिये ऐलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी गणों को ही अपने गुरु समझते हैं । पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि देवी देवताओं की स्थापना तेरापंथी अपने मंदिरों में नहीं करते । प्रायः यही बीसपंथी और तेरापंथी आम्नायमें भेद है । बीसपंथके माननेवाले दक्षिण महाराष्ट्र और गुजरातप्रांत में अधिक हैं। तेरापंथके अनुयायी राजपूताना संयुक्त प्रांत, बुंदेलखंड आदि उत्तरी भागों में विशेष हैं । तारनपंथ के अनुयायी परवार गोलालारे आदि जातियों के कुछ लोग है । तारनपंथी मूर्तिको नहीं मानते, वे शास्त्रकी आराधना करते हैं। तारनपंथी अपने मंदिरोंमें मूर्तियों के स्थान में शास्त्र रखकर पूजा करते हैं । उनके मंतव्य, मूर्तिके विरोधमें, प्रायः श्वेताम्बरसम्प्रदायके स्थानकवासियों के समान हैं।
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[ भाग १४
ऊपर कहा जा चुका है कि श्वेताम्बर संप्रदायमें भी स्थानकवासी, बीसपंथी आदि भेद हैं । स्थानकवासी, मूर्तिपूजाका विरोधी पथ है । इसके अनुयायी अपने साधुओंको ही पूज हैं । श्वेताम्बर संप्रदाय के लोग मूर्तियों में आँखें जड़वाकर आभूषण इत्यादिसे विभूषित कर पूजन करते हैं । दूसरे उनके सिद्धांत में स्त्रीमुक्ति, शूद्रमुक्ति, केवलि-भुक्ति और वस्त्रसबातोंके विरोधमें हैं । हित मुक्ति मानी है । दिगम्बर संप्रदाय इन
इन बातों का तात्पर्य यही है कि जैन समाजमें बाहरी क्रियाकाण्ड - आचरणकी मतभिन्नता पर अनेक आम्नाय और पंथ हो गये हैं । वास्तवमें देखा जाय तो यही ज्ञात होता है कि क्या दिगंबर और क्या श्वेताम्बर दोनों संप्रदायके मूल और तात्विक सिद्धांत प्रायः एक ही हैं । किन्तु अज्ञानताके कारण जैन जनता आंतरिक बातों तक प्रवेश नहीं कर पाती, इसलिये केवल वंशपरंपराकी मान्यता कायम रखनेके लिये अपने अपने पूर्वजों के बाहरी क्रियाकाण्डके पंथाभिमान में खूब सन रही है । आम्नाय और पंथके हठमें जैनसमाज इतना उन्मत्त हो रहा है कि वह धर्मके नाम पर लाखों रुपया अपने ही भाई बन्धुओं से लड़नेझगड़ने में बर्बाद कर चुका, तौ भी उसको अकल नहीं आई । आवे कैसे ? उसे तो अपने अपने मत-पंथों का वर्चस्व कायम रखना है न । इसी मतपंथ की चढ़ा ऊपरीसे नित्य प्रति तीर्थों, और मंदिरोंके लड़ाई झगड़े खड़े होते हैं और उनसे सामाजिक उन्नतिमें बाधा पहुँचती है। जैनधर्मके अंतर्गत ऐसा कोई संप्रदाय, आम्नाय, मत-पंथ इत्यादि नहीं है जो स्याद्वादको नहीं मानता हो । तथापि स्याद्वाद धर्मके अनुयायी पंथहठ और क्रियाकाण्डमें इतने एकांती बन रहे हैं कि उन्हें जैनधर्मके मूल सिद्धांतों पर
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