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________________ १. ३०८ - जैनहितैषी [ भाग १४ ___ इसके प्रारंभकी उत्थानिकामें लिखा है:- धवलका देवसेनसूरिसे कुछ निकटका गुरुशिष्य "श्रीकुंदकुंदाचार्यकृतशास्त्राणां सारार्थ परिगृह्य संबंध होगा । बम्बईवाली प्रतिकी गाथा माइल्ल स्वपरोपकाराय द्रव्यस्वभावप्रकाशकं नयचक्रं धवलसे कोई संबंध नहीं रखती है-वह नयमोक्षमार्ग कुर्वन गाथाकर्ता '...इष्टदेवता- चक्र और देवसेनसूरिकी प्रशंसावाचक अन्य विशेषं नमस्कुर्खन्नाह-।" यहाँ द्रव्यस्वभाव- तीन चार गाथाओंके समान एक जुदी ही प्रकाशक नयचक्रका विशेषण है। संग्रहकर्ताका प्रशस्ति-गाथा है । इससे यह अभिप्राय भी हो सकता है कि यह . नीचे लिखी गाथामें कहा है कि दोहा छंदमें - नयचक्रयुक्त द्रव्यस्वभावप्रकाशक ग्रंथ है। रचे हुए 'द्रव्य-स्वभाव-प्रकाश'को सुनकर सुहं अब हमें यह देखना चाहिए कि इस 'द्रव्य- कर या शुभंकर नामके कोई सज्जन-जो संभवतः - स्वभावप्रकाश' के कर्ता कौन हैं। माइल्ल धवलके मित्र होंगे-हँसकर बोले कि दोहादव्वसहावपयासं दोहयबंधेण आसि जं दिद। ओंमें यह अच्छा नहीं लगता; इसे गाथाबद्ध तं गाहाबंधेण य रइयं माइलधवलेण ॥ . कर दोः'दुसमीर-पोयमि ( नि ) वाय पा ( या) ता (णं). सुणिऊण दोहरत्थं सिग्धं हसिऊण मुहकरो भणइ । सिरिदेवसेणजोईणं । एत्थ ण सोहइ अत्थो गाहाबंधेण त भणह ॥ तेसिं पायपसाए उवलद्धं समणतच्चेण ॥ इससे भी यही मालूम होता है कि 'दव्वसपहली गाथाका अर्थ यह है कि 'दव्वसहा- हावपयास ' पहले दोहाबद्ध था और उसे माइल्ल वपयास' नामका एक ग्रन्थ था जो दोहा- धवलने गाथाबद्ध किया है। माइल्ल धवल ‘गाथाछंदोंमें बनाया हुआ था। उसीको माइल धव कर्ता' ही हैं, इसका खुलासा इस ग्रन्थकी उत्थालने गाथाओंमें रचा। निकासे भी हो जाता है जहाँ लिखा है कि ___ दूसरी गाथा बहुत कुछ अस्पष्ट है। फिर भी गाथाकर्ता (ग्रन्थकर्ता नहीं ) इष्टदेवताको उसका अभिप्राय लगभग यह है कि श्रीदेवसेन नमस्कार करते हुए कहते हैं। योगाके चरणोंके प्रसादसे यह ग्रंथ बनाया गया। नीचे लिखी गाथाओंसे भी यह प्रकट होता ___ यह गाथा बम्बईकी प्रतिमें नहीं है, मोरे- है कि इस ग्रन्थके कर्ता देवसेनसरि नहीं किंतु नाकी प्रतिमें है । बम्बईकी प्रतिमें इसके बदले माइल्ल धवल हैं:- 'दुसमीरणेण पोयं पेरियसंतं' आदि गाथा है- दारियदुण्णयदणुयं परअप्पपरिक्खतिक्खखरधारं । जो ऊपर एक जगह उद्धृत की जा चुकी है। सव्वण्हुविण्हुचिण्डं सुदंसणं णमह णयचक्कं ॥ और जिसमें यह बतलाया गया है कि देवसेन सुयकेवलीहिं कहियं सुअसमुद्दअमुदमयमाणं । बहुभंगभंगुराविय विराजियं णमह णयचक्कं ॥ - मुनिने पुराने नष्ट हुए नयचक्रको फिरसे बनाया। सियसद्दसुणयदुण्णयदणुदेहविदारणेक्कवरवीरं । मोरनावाला प्रातका गाथा याद ठाक ह ता तं देवसेणदेवं णयचक्कयरं गुरुं णमह ॥ उसस केवल यहा मालूम हाता है कि माइल इनमेंसे पहली दो गाथाओंमें नयचक्रकी __ १ बम्बईवाली प्राचीन प्रतिमें यहाँ 'गाथाकर्ता' ही प्रशंसा करके कहा है कि ऐसे विशेषणों युक्त पाठ है, जब कि मोरेनाकीमें 'ग्रन्थकर्ता' है । वास्तवमें नयचक्रको नमस्कार करो और तीसरी गाथामें गाथाकर्ता ही होना चाहिए । यही पाठ छपना भी कहा है कि दुर्नयरूपी राक्षसको विदारण करचाहिए था। नेवाले श्रेष्ठ बीर गुरु देवसेनको जो नयचक्रके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522883
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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