SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अङ्क १०-११] जैनधर्मका अध्ययन। ३०३ लगा है, उन्हींके समान यह भी एक शाखा है हमारा खयाल है कि हमारे सम्प्रदायके जीवनऔर महत्त्वकी दृष्टिसे यह अन्य सब शाखा- भूत प्रधान धर्मग्रन्थ प्राकृतमें ही हैं और वही ऑसे जरा भी कम नहीं है । सौभाग्यसे पवित्र हमारा सबसे प्राचीन साहित्य है । भगवत्कुन्दआगमग्रन्थोंकी भाषामें प्रवीणता प्राप्त करनेकी कुन्दाचार्यके नाटक समयसार, प्रवचनसार, पंचाएक कठिनाई तो अब बाम्बे यनीवर्सिटीने दर स्तिकाय, षट्पाहुड़, आचार्य बट्टकेरका मूलाचार, कर दी है-उसने अपने अभ्यासक्रममें अर्ध-माग- शिवायनकी भगवती आराधना, यतिवृषभकी धीको भी स्थान दे दिया है। अब जैन विद्या- त्रिलोकप्रज्ञप्ति, स्वामिकुमारकी कार्तिकेयानुप्रेक्षा, र्थियोंका यह कर्तव्य है कि वे अन्तःकरणपूर्वक पद्मनन्दिकी जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, गोम्मटसार, त्रिलोइस भाषाका अध्ययन करना स्वीकार करें और कसार, द्रव्यसंग्रह, परमात्मप्रकाश आदि प्रधान जैन धनिकोंको चाहिए कि वे इस कार्य में विशेष प्राकृतग्रन्थ इस समय भी सर्वत्र विख्यात हैं। आचार्य उत्तेजन देवें और उन्हें हर तरह सहायता पहुँचावें। पूज्यपाद, भट्टाकलंकदेव, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र मैंने सना है कि एके जैनसंस्था जैनधर्मके विद्या- आदिके महान ग्रन्थोंमें जब हम जगह जगह प्राकृर्थियोंको जो जो सहायतायें अपेक्षित हों वे तके उद्धरण और 'उक्तंच' श्लोक आदि देखते हैं, देनेके लिए तैयार है, इसलिए हमें आशा है तब अनुमान होता है कि उनके समयमें भी प्रधान कि इस विषयके उत्साही विद्यार्थी आगे आगे मा सा माननीय ग्रन्थ प्रायः प्राकृतके ही थे। इस समय बीसों संस्कत ग्रन्थ ऐसे मिलते हैं जो प्राकत और इस महान कार्य के प्रथम फल थोड़े ही समयमें बा - परसेही संस्कृतमें अनुवाद किये गये हैं और जनताके सामने उपस्थित करनेमें न चूकेंगे। "* मूडविद्रीके सुप्रसिद्ध सिद्धान्त ग्रन्थ-जो हम १-इसमें जो कुछ लिखा गया है वह श्वेता- लोगोंके आलस्यसे कईसौ वर्षेसे एक ही जगह म्बर सम्प्रदायके सूत्रग्रन्थोंको लक्ष्य करके लिखा कैद हो रहे हैं-तथा दिन पर दिन नष्ट होते जा गया है जो कि अर्ध मागधी भाषामें हैं और रहे हैं-प्रायः प्राक्रतमें ही हैं। इन्द्रनन्दिके जिन्होंने श्वेताम्बर साहित्यके एक बहुत बड़े श्रुतावतारमें जो उनका संक्षिप्त परिचय मिलता भागको रोक रक्खा है । यद्यपि इस समय दिगम्बर है, उससे तो मालूम होता है कि वे सब सम्प्रदायका जितना साहित्य उपलब्ध और परि- ग्रन्थ दिगम्बर सम्प्रदायके सर्वस्व है और उनकी चित है, उसका अधिकांश संस्कृतमें है और इस श्लोकसंख्या कई लाख है ! हमारा अनुकारण हमारे समाजके बडे बडे विद्वानोंतकका मान है कि श्वेताम्बरसाहित्यमें जो स्थान यह खयाल हो गया है कि हमारी प्रधान धार्मिक आगम या सूत्रग्रन्थोंका है वही दिगम्बरसाहित्यमें भाषा संस्कृत है। परन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं : उक्त सिद्धान्तग्रन्थोंका है । हमारे एक मित्रने नागौरका पुस्तकभण्डार देखा है । वे कहते हैं है । बहुत कुछ नष्ट होजाने पर भी-अब भी कि इस भण्डारमें भी ऐसे सैकड़ों प्राकृत भाषाके __ * यह लेख बडौदा-कालेजके गत फरवरीके ग्रन्थ हैं जो अन्य दिगम्बर सम्प्रदायके पस्तकामेगजीनमें 'दि स्टेडी आफ जैनिज्म' नामसे अंग- लयोंमें नहीं मिलते । ऐसी दशामें कोई कारण रेजीमें प्रकाशित हुआ था। यह उक्त कालेजके पाली नहीं मालूम होता कि हम लोग भी प्रो० राज. भाषाके प्रोफेसर श्रीयुक्त सी० बी० राजबाड़े एम० बाड़ेके कथनानुसार जैनधर्मके अध्ययन करने९०, बी० एस सी० का लिखा हुआ है। हम अपने वालोंके लिए अपने प्राकृतग्रन्थोंको नई संशोधन दिगम्बर समाजका ध्यान इस आर आकर्षित करनेके पद्धतिके अनुसार प्रकाशित करने का प्रयत्न लिए इसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करते हैं। न करें । हमें यह भी चाहिए कि अपने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522883
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy