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जैनहितैषी -
मैं समझता हूँ कि आराके 'जैनपब्लिशिंग हाउस' जैसी संस्था के लिए इस प्रकारका सहकारी कार्य उठाना कुछ कठिन नहीं पड़ेगा । इसके सिवाय, इस समय जो ग्रन्थ छपते हैं वे सब प्रायः पोथी साइजमें पत्राकार छपते हैं और इससे उनके जुदा जुदा पत्रोंके कारण, अध्ययन करते समय विद्यार्थियों को बहुत ही अड़चन पड़ती है । और फिर कितने ही सम्पा दक तो अपना कर्तव्य यहाँतक भूल जाते हैं कि ग्रन्थमें जो अवतरण या ' उक्तं च श्लोक ' आदि होते हैं उनको जुदा दिखलाने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करते- उन्हें भी मूलके ही टाइप ' रनिंग' छपा देते हैं ।
जिस समय यह कार्य अर्वाचीन पद्धतिके अनुसार योग्य रीति से सम्पादित किया जायगाअर्थात् जब मूल ग्रन्थोंमें, प्रकरणों और सूत्रोंके जुदा जुदा स्पष्ट विभाग रक्खे जायँगे, उनके अवतरण और उद्धरण स्पष्ट दिखलाये जायेंगे, अनुस न्धानोंका अन्वेषण किया जायगा, अनुक्रमणिकायें और सूचियाँ भी साथ ही दी जायँगी, उसी समय समझा जायगा कि अर्वाचीन विवेचकपद्धतिकी सहायता से इस साहित्य के अध्ययन करने का समय आ गया है। हमें नवीन साहित्यमेंसे प्राचीन साहित्य सावधानी के साथ जुदा करना होगा, विविधग्रन्थों का भरसक समयनिर्णय करना होगा, और उसकी शुद्धता या निर्दोषताकी छानवीन करनी होगी । ऐसा करते समय जो विषय स्वभावतः विवादास्पद हैं उनके सम्बन्धमें ऊहापोह करनेकी स्वतंत्रता रहनी चाहिए और उन पर प्रामाणिक मतभेद प्रकट करने की भी स्वतंत्रता रहनी चाहिए। इस समय प्राच्यविद्याविषयक विवेचनके दो जुदा जुदा सम्प्रदाय दिखलाई देते हैं । एक पक्ष तो मूलग्रथों को जितना बन सकता है उतना पुराना सिद्ध करने का प्रयत्न करता है और दूसरा पक्ष
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[ भाग १४
उन्हें ' येन केन प्रकारेण ' ईसाके बाद के किसी एक कालविभागमें - अर्थात् अर्वाचीन समय में खींच लाने में प्रयत्नशील दिखाई देता है । कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनके मस्तिष्क पुराणप्रियता के विचारोंसे अतिशय संकुचित हो रहे हैं और इस कारण प्राचीन ग्रन्थोंमें एक भी भूल या दोष दिखलाया जाता है तो वे बहुत ही चिढ़ जाते हैं । उनके विश्वास के अनुसार मूलग्रन्थके किसी भी लिखित अर्थ या विचारके सम्बन्धमें किसी तरह की स्वतंत्र चर्चा की ही नहीं जा सकती । परन्तु अब इस प्रकार के विचार अधिक समय तक टिक नहीं सकते । तो भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि पुराणप्रियता भी बड़ी उपयोगी चीज है । उसके द्वारा हमें पुरातन परंपराओंका परिचय मिलता है और अनेक समय अन्य साधनों के अभाव में वही हमारे लिए मार्गदर्शिका होती है। यह ठीक है कि परम्पराओंकी भी गंभीरता से परीक्षा होनी चाहिए; परन्तु उनका सर्वथा त्याग कर देना भी किसी तरह न्याय्य नहीं हो सकता और इस विषयमें साधुओंको ही विशेष सहायता करनी होगी । उन्हें भी अपने सदाके मौनको त्याग करके, उनके पास जो परम्परागत बातोंका बड़ा भारी संग्रह है उसे उपासकोंके समक्ष उपस्थित करना चाहिए । अब उन्हें यह भय रखनेकी आवश्यकता नहीं है कि ऐसा करनेसे उनका धर्म किसी जोखिममें पड़ जायगा । क्योंकि अब यह सर्वमान्य सिद्धान्त हो गया है कि छुपा रखनेसे कभी किसी सत्यकी वृद्धि नही होती ।
यह सब व्यवस्था करने और जैनधर्मको अध्ययनकी सुदृढ़नीव पर खड़ा करनेके लिए एक उत्साही और शक्तिशाली विद्वन्मण्डलको आगे बढ़ना चाहिए और अपने दृढ़तायुक्त कार्यके द्वारा जगतको बतला देना चाहिए कि आज तक जिन जिन ज्ञानशाखाओंका पता
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