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________________ जैन समाजके शिक्षित । अङ्क १०-११ ] वे विद्यार्थी अवस्थामें ही बड़ी शान शौकतके साथ रहने लग जाते हैं और अपने माता पिताको बड़ी बड़ी आशायें दिलाकर उनसे बहुत ज्यादा खर्च लेते हैं । परन्तु जब परीक्षा पास करके ये लोग कालिजसे निकलते हैं तब तुरन्त ही उस ऊँचे पदको नहीं प्राप्त कर पाते हैं जिसकी आकांक्षा अपनी बालबुद्धिके कारण बाँधे बैठे थे । प्रारम्भमें इनको बहुत ही छोटा पद और बहुत ही थोड़े वेतनकी नौकरी मिलती है जिसमें वह किसी प्रकार भी अपनी इस ऊँची हैसियत से नहीं रह सकते जो उन्होंने विद्यार्थी अवस्था में बना रक्खी थी। इसके सिवाय उनके मां-बाप जो उन पर पूरी पूरी आशा बाँधे बैठे थे और इस ही कारण जिस तरह भी हो सकता था उनको पूरा पूरा खर्च देते थे साथ ही, उनकी स्त्री और बालबच्चोंको भी ऊँची हैसियतमें पाल रहे थे वे भी अब उनका रोजगार लग जाने पर तुरन्त ही उनकी स्त्री और बालबच्चों का सारा बोझ उन पर डाल देते हैं और अपने वास्ते भी सब कुछ सहायता चाहने लग जाते हैं । बल्कि, बेटेका रोजगार लग जाने पर जो ऊँची हैसियत बनानेकी आकांक्षा बाँध रक्खी थी उसके पूरा होनेकी इच्छा करने लगते हैं और यदि विद्यार्थी अवस्था में उसको अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च देते रहने के कारण कुछ कर्ज भी जिम्मे हो गया हो तो उसके बेबाक करदेने का भी तकाजा करने लग जाते हैं । इस प्रकार नौकरी लगते ही बाबूसाहब पर एकदम इतने भारी बोझ पड़ जाते हैं कि वह अपनी प्रारम्भिक छोटी नौकरीमें उनको किसी प्रकार भी नहीं झेल सकता, बल्कि शुरू शुरू में तो वह स्वयं अकेला अपना भी खर्च नहीं चला सकता है जिसको वह बहुत ही ऊँचे दर्जेका रखना चाहता है । इसलिये वह बहुत ही ज्यादा सट Jain Education International २९३ पटाता है और रातदिन इसी सोच में पड़कर परम स्वार्थी बन जाता है और अपने मातापिता से - भी आँख चुराने लगता है और अपने बालबच्चों को भी भारस्वरूप ही समझने लग जाता है। यही कारण है कि विद्यार्थी अवस्था में जो थोड़ाभी होता है वह कालिजसे निकलकर कारबारी बहुत जोश जातिप्रेम तथा देशसेवाका पैदा होनेपर बिलकुल ही जाता रहता है, सर्व प्रकार सद्विचार लुप्त होकर उन्हें आटे दालका भाव मालूम होने लग जाता है और यह कहावत उन-पर बिलकुल चरितार्थ हो जाती है कि "भूल गये राग रंग भूल गये जक्कड़ी, तीन चीज याद रहीं नून तेल लक्कड़ी । " होते होते जब हमारे ये बाबू लोग बहुत ऊँचे पद पर पहुँच जाते हैं, वेतन भी इनका बहुत ज्यादा बढ़ जाता है और घरबारका सब प्रबन्ध भी ठीक बैठ जाता है, तब यदि फिर इनको जाति तथा देशकी सेवाका खयाल आता है या सरकार के द्वारा प्रतिष्ठा पानेके पश्चात् जातिमें भी भी प्रतिष्ठा पानेका कुछ शौक उभरता है तो उस समय ये लोग जातीय सभाओंमें भी शामिल होते हैं और बहुत कुछ सेवा करनेका जोश दिखलाते हैं । परन्तु जब देखते हैं कि वहाँ तो अनपढ़ और नासमझ धनाढ्य ही पूजे जाते हैं और बड़े बड़े पंडितों तथा विद्वानों के ऊपर भी वे ही प्रधान बना दिये जाते हैं; बल्कि पंडित और विद्वान् लोग स्वयं भी उन्हींकी हाँ में हाँ मिलाते हैं तब बहुत घबराते हैं और अपनी दाल गलती न देखकर सभाओं में सम्मिलित होनेकी अरुचि ही पैदा कर लेते हैं। इसके सिवाय वहाँ इनकी चालढाल और वेशभूषा के ऊपर भी लोग कानाफूसी किया करते हैं। पंडित लोग तो इस मौके को गनीमत समझकर और शेखीमें आकर उनकी अनेक क्रियाओंमें त्रुटि निकालने For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522883
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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