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'अङ्क ४] वनवासियों और चैत्यवासियोंके सम्प्रदाय।
जिनपतिसूरिके नेमिचन्द्र भंडारी नामके उनसे कुछ पीछे, हमारे यहाँ भी इसका प्रवेश विद्वान् गृहस्थशिष्यने 'षष्ठिशतक' नामका प्राकृत हो गया होगा। ग्रन्थ की रचना की, जिसकी कि टीका स्वर्गीय विक्रमकी आठवीं शताब्दिके बादके कुछ पं० भागचन्द्रजी 'उपदेशसिद्धान्त-रत्नमाला' ग्रन्थों में इस प्रकारके उल्लेख मिलते हैं जिनमें के नामसे लिख गये हैं। इस ग्रन्थमें भी चैत्य- इस बातका आभास मिलता है कि उस समय वासियोंके आचरणका खण्डन किया गया है। दिगम्बर मुनियोंके चरित्र में शिथिलता आ गई इसके बाद जिनपतिसूरिके शिष्य जिनदत्तसूरिने थी, वे ग्रामोंमें या ग्रामोंके समीप रहने लगे थे भी एक ग्रन्थकी रचना की और उसमें चैत्यवा- और पूर्वकालके मुनियोंके साथ उनकी समता सियोंके मन्दिरोंको सर्वथा अनायतन सिद्ध नहीं हो सकती थे, वे उनकी छाया मात्र समझे कर दिया।
जाने लगे थे। इधर गुजरातमें भी मुनिचन्द्रसूरि और भगवद्गुणभद्राचार्य विक्रम संवत् ८५५ के मुनिसुन्दरसूरि आदि आचार्योंने चैत्यवासियोंके लगभग अपने आत्मानुशासनमें लिखते हैं:विरुद्ध आन्दोलन शुरू करके उन्हें हतप्रभ इतस्ततश्च त्र्यस्यन्तो विभावयी यथा मृगाः।। कर दिया।
वनाद्विशन्त्युपग्राम कलौ कष्टं तपस्विनः ।। ___ इस तरह वि० संवत् १०८४ के लगभग जो अर्थात-जिस तरह रातको मृगमण वनमें विधिबद्ध आन्दोलन शुरू किया गया था वह इधर उधरसे त्रास पाकर गाँवके पास आ रहते १५ वीं शताब्दिके अन्त में जाकर सफल हुआ। हैं उसी प्रकार खेद है कि कलिकालमें तपस्वी
यही श्वेताम्बरशाखाके चैत्यवासियों और मुनि भी ग्रामोंकी सीमामें आ घुसते हैं। वनवासियोंका इतिहास है।
___एक और श्लोकमें वे कहते हैं कि मुनियोंमें ___ अब हमें दिगम्बर सम्प्रदायकी ओर आना
साधुचरित्र या सदाचारी उत्कृष्ट मणियोंके समान "चाहिए । यद्यपि हमारे यहाँ इस विषयका कोई
बहुत ही थोड़े रह गये हैं । —“ तपस्तेषु श्रीमलिखित इतिहास नहीं है; फिर भी हमारा वि
न्मणय इव जाताः प्रविरलाः ।" श्वास है कि यदि हम अपने उपलब्ध साहि- विक्रम संवत् १०१६ में यशस्तिलक काव्यत्यका तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करेंगे और के कर्ता पण्डित सोमदेव कहते हैं:प्राचीन तथा नवीन ग्रन्थोंकी बारीकीसे छानबीन काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके । करेंगे तो हमें भी अपने मुनिमार्गकी शिथिल- एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः ।। ताका एक क्रमबद्ध इतिहास तैयार करनेमें पुनश्चअवश्य सफलता होगी।
यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम् । दिगम्बर शाखाके साधुओंमें उक्त शिथि- तथा पूर्वमुनिच्छाया पूज्या सम्प्रतिसंयताः ।। लाचारकी प्रवृत्ति कबसे हुई और वह प्रवृत्ति अर्थात्-कलिकाल, चलचित्त और देहके एक संघके रूपमें किस समय परिणत हुई, इसका अन्नका कीड़ा बन जानेपर भी, यह आश्चर्य है निश्चित उत्तर देना कठिन है; परंतु ऐसा जान जो इस समय भी जिनरूप ( नमरूप ) धारण "पड़ता है कि श्वेताम्बरों में चैत्यवासियोंका जोर करनेवाले मुनियोंका अस्तित्व है ।। अढ चुकने पर, संभव है कि उन्हींकी देखादेखी, जिस तरह तीर्थकरोंकी लेपादिसे बनाई हुई