SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० जैनहितैषी [भाग १४० धीरे ‘निग्रन्थ मार्ग ' विरलप्राय हो गया । अत्रोत्सत्रिजनक्रमो न च न च स्नात्रं रजन्या सदा, प्राचीन ग्रन्थोंपर हडताल फेर दी गई और साधूनां ममताश्रयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि जाते हो। जाति-ज्ञातिकदाग्रहो न च न च श्राद्धेषु ताम्बूलमि(१)-.. __ मामला आगे बढा । विक्रम संवत २०२में त्याज्ञात्रयमनिश्रिते विधिकृते श्रीवीरचैत्यालये ॥१॥ जिस समय चापोत्कट (चावड़ा ) वंशी राजा अर्थात् यहाँ पर सूत्रविरुद्ध चलनेवालोंको वनराजने 'अणहिलपुर-पाटण' बसाया, उस अर्थात् चैत्यवासियोंको आनेकी मनाई है, कभी समय उनके गुरु शीलगुणसूरिने-जो कि चैत्य- रात्रिको स्नात्र (अभिषेक ?) न किया वासी थे-उनसे यह आज्ञा जारी करा दी कि इस जायगा, साधु न ठहर सकेंगे, रात्रिको स्त्रियाँ नगरमें चैत्यवासी साधुओंको छोड़कर दूसरे प्रवेश न कर सकेंगी, और जातिपाँतिके लड़ाई वसतिवासी साधुओंको आनेकी मनाई है । इस झगड़े यहाँ न होंगे। आज्ञाको रद्द करानेके लिए वि० सं० १०८४ में एक और श्लोकका अभिप्राय यह है कि यहाँ जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि नामके दो किसीको भी वन्दनादिका निषेध नहीं है, शास्त्रावसतिकावासी आचार्योंने राजा दुर्लभदेवकी ज्ञाको माननेवाले इसके अधिकारी हैं और इस सभामें चैत्यवासी साधुओंके साथ शास्त्रार्थ मन्दिरकी देख-रेख, आमद-खर्च और रक्षाका किया और उसमें उन्हें अच्छी तरह पराजित प्रबन्ध तीन चतुर श्रावक करेंगे। किया। इसके बाद पाटणमें वसतिवासियोंका इन श्लोकोंमें चैत्यवासी साधुओंके द्वारा आवागमन शुरू हो गया। मन्दिरों में होनेवाले शिथिलाचारोंकी स्पष्ट झलक ___ मारवाड़में चैत्यवासियोंकी शक्ति बहुत बढ़ पाई जाती है। गई थी। उसे तोड़नेके लिए सबसे अधिक जिनवल्लभसूरिका यह प्रयत्न बहुत ही प्रयत्न उक्त जिनेश्वरसूरिके शिष्य जिनवल्लभ अच्छा था; परन्तु फिर भी वह चैत्यवासियोंको सरिने किया। इन्होंने संघपट्टक नामका एक असह्य हुआ । वे पाँच सौ लढवाजोंको साथ छोटासा ग्रन्थ-जिसमें केवल ४० पद्य है-बना- लेकर चित्तौड पर चढ़ आये ! परन्तु तत्कालीन कर बड़ा काम किया । इस ग्रन्थमें चैत्यवासि राणा साहबने उन्हें इस अपकृत्यसे रोक दिया। योंके शिथिलाचारका और उनकी सूत्रविरुद्ध । परन्तु इस धमकीसे और उछलकूदसे जिनप्रवृत्तिका बड़ा ही मार्मिक और स्पष्ट चित्र खींचा बल्लभसूरि डरे नहीं, उन्होंने अपना प्रचार कार्य गया है। चित्तौड़के श्रावकोंने आपके उपदेशसे प्रतिबुद्ध . और भी जोरोंके साथ शुरू किया और उसमें र उन्हें बहुत कुछ सफलता भी मिली। होकर महावीर भगवानका एक मन्दिर बनवाकर उसके गर्भगृहके द्वारके एक स्तंभपर ' संघ जिनवल्लभसूरिके बाद जिनदत्तसूरि और जिनपतिसरिने भी इसी दिशामें अपना प्रयत्न पट्टक ' के ४० पद्य और दूसरे स्तंभपर 'धर्मशिक्षा' के ४४ पद्य खुदवा दिये, जो जारी रक्खा । जिनपतिसूरिने 'संघपट्टक' पर आजतक उनकी कीर्तिको प्रकाशितकर रहे एक तीन हजार श्लोक प्रमाण टीकाकी रचना की आर उसका खूब प्रचार किया। हैं। इस मन्दिरके छज्जे पर भी कुछ श्लोक खुदे हुए हैं जिनमेंसे एक यहाँपर उद्धृत किया १ संघपट्टक मूल, संस्कृतच्छाया और गुजराती जाता है: टीकासहित छप चुका है।
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy