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________________ वनवासियों और चैत्यवासियों के सम्प्रदाय । अङ्क ४ ] तोंका अस्तित्व तो अब तक बना हुआ है और बहुतसे काल के गाल में समा चुके हैं। जैनधर्म अब से लगभग दो हजार वर्ष पहले दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दो मुख्य शाखाओंमें विभक्त हो चुका है और ये दोनों ही शाखायें अपनी अनेकानेक प्रशाखाओंको लिये हुए अभी तक अपने अस्तित्वकी रक्षा कर रही हैं । - ये दोनों शाखायें जिन अनेक पन्थों और गण गच्छ आदिमें विभक्त हैं उनके उल्लेख की - यहाँ आवश्यकता नहीं मालूम होती । हम इस लेखमें केवल ऐसे दो पन्थभेदोंकी चर्चा करना चाहते हैं जो दोनों ही शाखाओंमें बहुत समय से चले आ रहे और जिनका हम मठवासी और वनवासी नामोंसे उल्लेख करेंगे । श्वेताम्बरोंमें इस समय जो ' जति ' या 'श्री पूज्य ' कहलाते हैं वे मठवासी या चैत्यवासी पन्थ के हैं और जो 'संवेगी ' या ' मुनि' कहलाते हैं वे वनवासी या वसतिकावासी साधुओंके पन्थके हैं । इसी तरह दिगम्बरोंके 'भट्टारक ' मठवासी पथके हैं और दिगम्बर' मुनि' जिनका प्रायः अभाव हो चुका है वनवासी पन्थके हैं । वनवासी पन्थके उपासक अपनेको ‘तेरह - पन्थी' और भट्टारकोंके उपासक अपनको 'बीस पन्थी' कहते हैं । ये तेरह - पन्थ और बीसपन्थ नाम चाहे जिस कारणसे पड़े हों; परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि ये पुराने वनवासी और मठवासी भेदोंके ही नामान्तर हैं । दिगम्बर और श्वेताम्बर, दोनों ही शाखाओं"के साधु अपने को ' निर्ग्रन्थ ' साधु कहते हैं । यद्यपि श्वेताम्बर धर्म साधुओं को वस्त्र पहन नेकी आज्ञा दी गई है; परन्तु दिगम्बरों के समान उनके भी आचारशास्त्रोंमें कहा है कि साधुओंको बस्ती से बाहर उद्यानों या वसतिकाओं में रहना चाहिए, अनुद्दिष्ट भोजन करना चाहिए, 'धर्मोपकरणोंको छोड़कर सब प्रकार के परिग्रहों से ९९ दूर रहना चाहिए, और शान्तिभावसे ध्यान, अध्ययन, उपदेश आदि करते हुए जीवन बिताना चाहिए । शुरू शुरू में दोनों ही शाखाओंके साधुओंमें चरित्रकी यह दृढता पाई जाती थी; परन्तु ज्यों ज्यों समय बीतता गया और दूर दूरतक इनका प्रचार होता गया त्यों त्यों चरित्र शिथिल होता गया और दोनों ही शाखाओं में इस प्रकारके शिथिलचरित्र साधुओंका प्राबल्य बढ़ता गया और इसके फलस्वरूप दोनों शाखाओं में एक एक नये पन्थकी जड़ जमती गई । श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें इस शिथिलाचारी पन्थके सम्बन्धमें अनेक उल्लेख मिलते हैं जिनसे इसका टूटा फूटा इतिहास तैयार किया जा सकता है। की भूमिकासे मालूम होता है कि वीरनिर्वाण श्रीजिनवल्लभसूरि संघपट्टक नामक ग्रन्थ-संवत् ८५० के लगभग कुछ श्वेताम्बर साधु-ओंने उग्र विहार छोड़कर चैत्यवासका या मन्दिरोंमें रहनेका प्रारंभ कर दिया था। धीरे धीरे इन लोगों की संख्या बढ़ती गई और कोई १५० वर्षोंमें ये लोग बहुत प्रबल हो गये । इसी समय इन्होंने ' निगम ' नामके कुछ ग्रन्थ रचे और उनके विषय में यह प्रसिद्ध किया कि ये ' दृष्टिवाद' नामक बारहवें अंगके खण्ड या अंश हैं । इन ग्रन्थोंमें यह प्रतिपादन किया. गया है कि वर्तमान कालके साधुओं को चैत्योंमें रहना उचित है और उन्हें पुस्तकादिके लिए यथायोग्य आवश्यक द्रव्य भी संग्रह करके. रखना चाहिए। इसके बाद ये वसतिकावासियोंकी निन्दा करने लगे और अपनी शक्ति बढ़ाने लगे । श्रावकों में विशेष बुद्धि नहीं थी, वे इस समय जैसे भोले भक्त हैं पहले भी वैसे ही थे; इस कारण वे उक्त शिथिलाचारियोंको ही अपना परम गुरु समझने लगे। धीरे
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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