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जैनहितैषी
[भाग १४
प्रतिमायें पूज्य होती हैं उसी तरह पूर्वकालके णभस्मोद्भूलनादिरूपाम् । किं विशिष्टाः सन्तः, अहं. मुनियोंकी. छायारूप ये वर्तमानके मुनि भी यवोऽहंकारिणः । किं कृत्वा, अपोद्य अपवादविषयाँ पूज्य हैं।
कृत्वा निषिद्धयेत्यर्थः। काम्, मुद्राम् । किंविशिष्टाम् ,
आईती जैनीमाचेलक्यादिलिङ्गलक्षणाम् । पुनः किंविगुणभद्रस्वामीसे कोई डेड़सौ वर्ष बादके ये
शिष्टाम् , त्रिजगतावन्द्यां जगत्रयनमस्याम् । पुनरपि कि वचन हैं । इतने समयमें शिथिलता और भी विशिष्टाम् . सांव्यवहारिकी समीचीनप्रवत्तिनिवत्तिप्रयोअधिक बढ़ गई होगी और वह इन वचनोंमें भी जनाम् । पक्षे, टंकादिनाणकाकृतिं समीचीनामपोच खूब स्पष्टतासे झलकती है।
मिथ्यारूपां क्षुद्रा व्यवहरन्तीति व्याख्येयं। अन्ये पुनर्दव्यपरन्तु इन वचनोंसे यह निश्चय नहीं होता जिनलिङ्गधारिणो मुनिमानिनोऽवशिनोऽजितेन्द्रियाः कि उक्त शिथिलचरित्र मनियोंका चैत्यवासी सन्तस्तां तथाभूतामाईती मुद्रा बहिःशरीरे न मनसि श्रिताः श्वेताम्बरोंके समान कोई पृथक दल ही बन गया प्रपन्ना आविशन्ति संक्रामति विचेष्टयन्तीत्यर्थः । कम्,
लोकं धर्मकामं जनम् । किंवत्, भूतवद्हैस्तुल्यम् । . था। बहुत सम्भव है कि उस समय तक शक्ति
अपरे पुनद्रव्यजिनलिङ्गधारिणो मठपतयो म्लेच्छन्ति हीनता, अज्ञानता और देशकी बिगड़ी हुइ म्लेच्छा इवाचरन्ति । लोकशास्त्रविरुद्धमाचार चरन्तीपरिस्थितियों के कारण ही वे अपने चरित्रमें शिथिल त्यर्थः । कया. तच्छायया आहेतगतप्रतिरूपेण । तथा हो गये हों, परन्तु उस शिथिलताको अच्छा च पठन्तिन समझते हों--उसका प्रतिपादन न करते हों। पण्डितैभ्रष्टचारित्रैठरैश्च तपोधनैः ।
किन्तु यह अवस्था बहुत समय तक नहीं शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ।। रही होगी। ऐसे शिथिलचरित्रोंकी संख्याका भोः सम्यक्त्वाराधक त्यज मुञ्चत्वम् । कम् , त्रिधा विस्तार होनेपर सौ दो सौ वर्षों में ही उनका दल परिचयं मनसानुमोदनं वाचा कीर्तनम् कायेन संसर्ग च। बन गया होगा और उसके कुछ प्रमाण हमें कैः सह, तकैः कुत्सितैस्तैस्त्रितयैः । किं विशिष्टैः, पुंदेविक्रमकी तेरहवीं शताब्दिके ग्रन्थों में मिलते हैं। हमहिः पुरुषाकारमिथ्यात्वैः । तदुक्तम्उनसे यह निश्चयपर्वक कहा जा सकता है कि कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेप्यसम्मतिः । तेरहवीं शताब्दिके पहले ग्यारहवीं या बारहवीं ।
असम्पक्तिरनुत्कीर्तिरमूढादृष्टिरुच्यते ॥ शताब्दिमें तो अवश्य ही हमारे यहाँ चैत्यवासी बाह्या अप्याहुःसाधुओंकी संस्था स्थापित हो गई थी। पाखण्डिनो विकर्मस्थान् वैडालव्रतिकान् शठान् ।
पण्डितप्रवर आशाधरने अपने अनगार हेतुकान् बकवृत्तींश्च वाड्यात्रेणापि नार्चयेत् ॥" धर्मामृतके दूसरे अध्यायमें इन चैत्यवासी दिग- .
उक्त अवतरणमें सम्यक्त्वके आराधकको: वर साधुओंका जिक्र किया है।
तीन प्रकारके मिथ्यातियों के साथ मन बनन
कायसे परिचय नः स्खनेका उपदेश दिया है। यथाः --
पहले प्रकारके मिथ्याती जैनधर्मसे विपरीत " मुद्रा सांव्यवहारिकी त्रिजगतीवन्द्यामपोद्याहती,
____मुद्राके धारण करनेवाले तापसा आदि हैं, दूसरे वामां केचिदहंयवो व्यवहरन्त्यन्ये बहिस्तां श्रिताः। लोकं भूतवदाविशन्त्यवशिनस्तच्छायया चापरे,
- प्रकारके मिथ्याती वे द्रव्यजिनलिङ्गधारी हैं, म्लेच्छन्तीह तकैस्त्रिधा परिचयं पुदेवमोहस्त्यज ॥९६॥ जो अपनेको मुनि कहते हैं और बाहरसे
टीका । इहक्षेत्रे सम्प्रति काले केचित्तापसादयो आहती मुद्रा अर्थात् दिगम्बर मुद्राको भी धारण व्यवहरन्ति प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयां कुर्वन्ति । कां, मुद्रां करते हैं; परन्तु अन्तर्रममें अवशी हैं-इन्द्रियोंको व्रतचिह्नम् । किं विशिष्टाम् , वामां विपरीतां जटाधार- नहीं जीतते हैं, और तीसरे प्रकारके मिथ्याती