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अङ्क ५ ]
उसे उड़ा ले गया अथवा उन्होंने ही उसे किसीके पास संशोधन आदिके लिए भेजा था । मूल पुस्तकोंका भी कोई पता नहीं चला। हमारे पास जो अनुवाद आया वह प्रारंभ से लेकर ७५ नं० के पद्य तक और फिर ३८१ से लेकर ८९९ तकके पद्योंका है । बीच बीचमेंके भी कई पद्य छूटे हुए हैं। पूर्ण पुस्तकमें २६६० पद्य हैं । अर्थात् बाबू साहबका यह अनुवाद एक चतुर्थांशके लगभग है । अस्तु । जो, बच रहा है उसे ही गनीमत समझकर हम इसे धीरे धीरे जैनहितैषीके पाठकोंकी भेट कर देना चाहते हैं। इसे प्रकाशित करते हुए हमारे सामने यह भावना रहेगी कि स्व० बाबू साहब अब भी अपने प्यारे जैनहितैषी के लिए कुछ न कुछ लिखा करते हैं और इससे हमें बहुत ही सन्तोष होगा ।
कुछ
हम प्रयत्न कर रहे हैं कि इस काव्यका शेष अनुवाद भी किसी विद्वानसे लिखा लिया जाय आर वह पुस्तकाकार प्रकाशित हो । - नाथूराम प्रेमी । ] पहला सर्ग ।
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स्तुति |
त्रुवल्लुव नायनार त्रुकुरल ।
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१ - जैसे प्रत्येक वर्णमालाका प्रथम अक्षर अ ' होता है उसी प्रकार संसारकी प्रत्येक वस्तुका आदि ईश्वर है ।
२ - जिस मनुष्य में उसकी विद्या कला व्यर्थ है ।
ईश्वर भक्ति नहीं है,
३ - जिस मनुष्य में ईश्वर भक्ति है उसकी निश्चयसे मुक्ति होगी । ४- जो मनुष्य रागद्वेषरहित ईश्वरकी भक्ति उपासना करेगा, उसे जीवन में कुछ भी कष्ट नहीं होगा ।
५ - जो मनुष्य ईश्वरकी कृपादृष्टिका अभिलाषी रहता है वह अज्ञानजनित शुभाशुभ कर्मों के परिणामसे मुक्त होगा, अर्थात् उसे ज्ञानकी प्राप्ति हो जायगी और ज्ञानकी प्राप्ति होने से वह जन्म मरणके दुःखोंसे छूटकर निर्वाण पद प्राप्त कर लेगा ।
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७ - जो मनुष्य परब्रह्म परमात्मा के चरणारविन्दको नमस्कार नहीं करता है, उसके दुःखोंका कभी अंत नहीं होगा ।
६- जो मनुष्य उस परमात्माके पदका अनुकरण करता है कि जिसने पाँचों इन्द्रियोंका निग्रह कर लिया है वह सदा अजर अमर रहेगा ।
८ - जब तक मुनुष्य दयानिधि परमात्मा के चरण-कमलकी वंदना नहीं करता तब तक धन धान्यादिक संसारिक पदार्थोंसे उसकी लालसा नहीं जाती ।
९ - जो मनुष्य अपना मस्तक अष्टगुणालंकृत परमात्मा के चरण कमल पर नहीं झुकाता है वह उन नेत्रोंके सदृश है कि जिनमें स्वयं अपने आपको देखनेकी शक्ति नहीं है ।
१० - केवल वे ही मनुष्य जन्म-मरण के समुद्र से पार होते हैं कि जो ईश्वरके चरणकी शरण लेते हैं ।
२ -- जलवृष्टिकी महिमा |
१ - संसार में प्राणियों का जीवन सामयिक जलवृष्टि पर निर्भर है, इसी कारण जलवृष्टि उनके लिये अमृतके तुल्य है ।
२ - जलवृष्टि द्वारा मनुष्यको प्रत्येक स्वादिष्ट पदार्थकी प्राप्ति होती है और जल स्वयमेव उसके भोजनका एक मुख्य अंग है ।
३-४- यदि जलवृष्टि न हो तो सम्पूर्ण पृथिवीमें यद्यपि वह समुद्रसे वेष्टित है, दुष्काल फैल जायगा और किसान लोग जमीनको जोतना छोड़ देंगे ।
५- जलसे ही पृथिवीको हानि पहुँचती है और जलसे ही फिर पृथिवीकी रक्षा होती है और जिनको हानि पहुँची थी उन्हें लाभ होता है ।
६ - यदि जलवृष्टि न हो तो हरी घासका एक तिनका भी कहीं नहीं उग सकता ।
७-यदि सूर्य समुद्रजलको सोखता रहे, परंतु वह फिर वृष्टिके रूपमें समुद्र में न आवे अगाध समुद्रका जल भी कम हो जायगा ।
८- यदि जलवृष्टि न हो तो न पृथिवी पर यज्ञ हों, न भोज्य हों, न दान हो, न धन हो और न धर्म हो ।