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अङ्क५]
होलीकी बची-खुची गुलाल ।
हाँ लिख चलो । पंचमकालमें सच्ची बात पूड़ियाँ खानेवालोंको जातिसे खारिज नहीं कर कहना पाप है । उसे कोई सुनना भी नहीं दिया । न जाने कहाँसे बीचमें ही एक त्यागी चाहता । “ मिले जुले पंचोंमें रहिए, प्राण जायँ महाशय आ कूदे, और उन्होंने पूड़ियोंके साँची ना कहिए।" जबसे इस शरीरने खरी प्रस्तावको भिक्षामें मांग लिया ! मुझे उनकी सुनाना शुरू किया है तबसे इसे कोई ‘टका पूड़ी-प्रियता पर बड़ी दया आई । बेचारे त्यागी सेर' भी नहीं पूछता । " खरो कहैया दाढ़ी
हो गये; फिर भी पूड़ी-मोहको न त्याग सके । जार । " यह बिलकुल सच है। मेरे 'शास्त्री'
इस पूडी-प्रस्तावके प्रधान पृष्ठपोषक जबलहोनेके विषयमें किसीको तिलतुष मात्र भी सन्देह ।
पुरवाले थे। वे लोग हलवाईके यहाँके खारे सेव नहीं है। फिर भी सिवनीकी 'शास्त्रीयपरि- खाना तो जायज समझते हैं, पर पूड़ियाँ खाना षत् ' का मेरे पास निमंत्रणपत्र भी नहीं आया । नाजायज ! इस पर कोई सुधारक पूछ बैठा यद्यपि मुझे बुलानेमें आर्थिक दृष्टिसे उन्हें कोई कि जब बेसनके खारे सेव खाये जाते हैं हानि नहीं थी, क्योंकि मैं उनपर 'टावलिंग' तब आटेकी पूड़ी खाने में क्या बुराई है? मुझे खर्चका बिल नहीं भेजता । परन्तु शास्त्रीय बड़ा अफसोस हुआ कि जबलपुरियोंसे इसका दृष्टिसे मेरी खरी बातें उनके सारे गडको गोबर कोई माकूल जवाब देते न बना । यदि उनका बना देतीं । मैं शास्त्री लोगोंसे यह कहे बिना शास्त्रीय बुद्धिसे जरा भी परिचय होता तो कभी न रहता कि “तम लोग अव्वल दर्जेके कह देते कि जब चना और गेहूँ दो ज़दा ज़दा आलसी निष्कर्मा और बुद्ध हो, तुमसे प्या अन्न हैं तब उनके खानेके विचारमें भेद होना होने जानेवाला है। क्यों व्यर्थ ही उछल उछल स्वाभाविक है । ब्राह्मणके हाथके स्पर्शसे चनेमें कर बडबडाते हो?" इससे बेचारोंको चल्लू भर
एक ऐसा रासायनिक असर आ जाता है कि पानीमें डूब मरना पडता । मैंने यदि परिषतको उससे उसमें वह दोष नहीं रहता। यदि दोनों सुशोभित किया होता, तो जिस समय पं०
अन्नोंको एक सा मानोगे, तो फिर पुरुषोंके समान बंशीधरजी शास्त्रीको 'जैनसिद्धान्त ' का स्त्रियोंको भी दूसरा ब्याह करना जायज मानना सम्पादकत्व भेट किया जा रहा था उस समय पड़ेगा । क्योंकि स्त्री भी तो मनुष्य ही है! कहता कि 'जैनसिद्धान्त' मासिकके बदले वार्षिक निकाला जाय । क्योंकि जब पं० खूब- मालूम नहीं, अभीकी जबलपुरकी परवारचन्दजी वर्ष भरमें सत्यवादीके दो तीन अंक ही सभामें पूड़ियोंका प्रश्न क्यों नहीं उठाया गया । मुश्किलसे निकाल पाते हैं, तब उनके बड़े भाई पं० पेट-पूजाके प्रश्नको हल किये बिना दूसरे कामोंमें बंशीधरजी निश्चय वर्षमें ही एक निकाल सकेंगे हाथ डालनेके लिए बढ़ना निरी मूर्खता है।
और इसीमें उनकी वयोज्येष्ठताकी शोभा है। " मासिक साप्ताहिक पत्र निकालना मजूरोंका काम है, सुधारकोंका जादू सभापति महाशय पर चल है, शास्त्रियोंका नहीं।
गया । आश्चर्य नहीं जो इन चलते पुर्जीने पूड़ि
योंके प्रश्नको दबा देनेकी रिश्वत लेकर ही उन्हें पारसालकी परवार-महासभामें परवार भाई फिरसे सभापति बनाना स्वीकार किया हो । पूड़ियाँके लिए लड़ मरे थे । इस नये युगकी रामटेकमें ऐसे तो लक्षण दिखते थे कि न सिंघईजी वह सबसे पहली सभा थी जिसमें पेट-पूजाके फिर कभी सभापति बननेका नाम लेंगे और सम्बन्धमें इतनी गहरी छनी । सभापति महा- न लोग उन्हें सभापति बनावेग हो । शयने बहुत गम खाई, जो ब्राह्मणोंके हाथकी