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________________ अङ्क ५] जैनधर्म अनीश्वरवादी है। १३७ अधिकारके नामसे पुकार सकें। न वे किसीका असली तत्त्वोंसे वे प्रायः अनभिज्ञ रहते हैं। न्याय करते हैं, और न किसीके अपराधोंकी तत्त्वोंके सभझने समझानेका भार बहुश्रुत धर्मजाँच । जैनसिद्धान्तके अनुसार सृष्टि स्वयं- गुरुओंपर ही प्रायः न्यस्त रहता है । वे स्वयं तो सिद्ध है, जीव अपने अपने कर्मोंके अनुसार स्वयं धर्मकी ऊपरी बातोंको-क्रियाकाण्ड आदिही सुखदुःख पाते हैं, ऐसी दशामें मुक्तात्मा- को ही धर्म समझते और मानते हैं । ऐसी ईश्वरोंको इन सब झंझटोंमें पड़नेकी जरूरत दशामें यह संभव नहीं कि जैनधर्मके सर्वभी नहीं है। साधारण उपासक-वे उपासक कि जिनके ___ गरज यह कि जैनधर्ममें माने हुए मुक्तात्मा- आसपास उनसे सैकड़ों गुणें ईश्वरको मानने ओंका उस ईश्वरत्वसे कोई सम्बन्ध नहीं है जिसे पूजनेवाले अजैन रहते थे-बिना ईश्वरके रह कि सर्वसाधारण लोग संसारके कर्ता हर्ता वि- जाते। जैनधर्ममें चाहे ईश्वर हो या न हो, पर धाता ईश्वरमें कल्पना किया करते हैं । उस उनका काम ईश्वरके बिना कैसे चलता ? अत ईश्वरत्वका तो उल्टा जैनधर्मके तर्क-ग्रन्थोंमें एवं उनके लिए अनीश्वरवादी होते हुए भी खूब जोरोंके साथ खण्डन किया गया है और जैनधर्मने ईश्वरवादको उतना स्थान दे दिया इस तरहकी प्रबल युक्तियोंके साथ किया गया जितना कि मूलसिद्धान्तोंकी रक्षा करते हुए है कि उसे पढ़कर बड़ेसे बड़े ईश्वरवादियोंकी दिया जा सकता था। भी श्रद्धा डगमगाने लगती है । उक्त ग्रन्थोंके इसमें सन्देह नहीं कि जैनधर्ममें मूर्तिपूजा अध्ययनसे यह बात अच्छी तरह समझमें आ बहुत प्राचीन समयसे प्रचलित है; परन्तु वह जाती है कि जैनधर्म वास्तवमें अनीश्वरवादी इस रूपमें नहीं थी जिसमें कि इस समय दिखही है-वह ईश्वरवादी नहीं कहा जा सकता। लाई देती है । मूर्तियोंका पंचामृत अभिषेक, __ इस ईश्वरके न माननेका जैनधर्मके मूल उनका आह्वान, स्थापन, सनिधीकरण, अष्ट सिद्धान्तोंसे इतना घनिष्ट और अविच्छिन्न द्रव्यसे पूजन, विसर्जन, अरहंतसिद्ध अरहंत सम्बन्ध है कि यदि यह निकाल दिया जाय, सिद्धका जाप, मूर्तियोंकी प्रतिष्ठाके विधि विधान, और दूसरे धर्मोके समान एक सृष्टिकर्ता ईश्वर आदि क्रियाओं पर. हिन्दूधर्मके क्रियामान लिया जाय, तो जैन-विज्ञानकी सारी काण्डका और ईश्वरवादका रंग चढ़ा हुआ ही इमारत धराशायी हो जाय । ऐसी दशामें दिखलाई देता है । हमारे स्तोत्रों और स्तवनों जैनधर्ममेंसे 'अनीश्वरवाद ! का सर्वथा अलग पर तो कहीं कहीं यह रंग इतना गहरा है किया जाना तो असंभव था, अधिकसे कि वे नाममात्रके परिवर्तनसे ईश्वरवादियोंके अधिक उसका गहरा रंग कुछ फीका किया स्तोत्रोंकी पंक्तिमें निर्भय होकर रक्से जा जा सकता था और अन्य ईश्वरवादियोंके सकते हैं। पिछले जैमसाहित्यमें तो कहीं कहीं 'प्रभावने यही किया । हमने अपने मूल अनी- भक्तिगंगा ऐसी तेजीसे बही है कि उसके प्रबाश्वरवादको सिद्धान्त ग्रन्थों में तो सुरक्षित हमें बेचारे अनीश्वरवादके अस्तित्वकी कल्पना रक्खा, परन्तु उसके बाहरीरूपमें यथासाध्य भी नहीं होती। एक जैनकवि कहते हैं:परिवर्तन कर डाला। " स्वामी जैसे बने तैसे तारो, ___एक बात और है । सर्वसाधारण लोग गहरी मेरी करनी कछु न विचारो।" सैद्धान्तिक बातोंको नहीं समझते । धर्मके यह ईश्वरबाद नहीं तो और क्या है ?
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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