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________________ १३८ जैनहितैषी [भाग १४ पौराणिक लेखकोंने इस विषयकी ओर और सबसे बड़ी विशेषता तथा महत्ता है । गतानुगभी अधिक ध्यान दिया है । उन्होंने अपनी तिकताके प्रबाहमें न बहकर, युक्ति और प्रमाकवि-सुलभ कल्पनाओंसे जैनधर्मके उपासकोंके णोंसे असिद्ध ईश्वरको माननेसे स्पष्ट इंकार कर लिए प्रायः वे सभी मानतायें सुलभ कर देनेका देना, कोई साधारण बात नहीं है । हमें अपने प्रयत्न किया है जो अन्य ईश्वरवादियोंमें प्रचलित इस अनीश्वरवाद या नास्तिकत्वको छुपानेकी हैं । वे कहते हैं कि भगवान ऋषभदेव सृष्टि- आवश्यकता नहीं है । बल्कि अब तो इसके कर्ता ब्रह्मा है, क्योंकि उन्होंने चौथे कालकी प्रकाशित और प्रचार करनेके लिए बहुत ही आदिमें जीवनानर्वाहकी शिक्षा दी थी, उन्होंने अनुकूल समय आ गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णोको उत्पन्न किया था. ___संसारमेंसे ईश्वरके अवतार, अंश या उनके उनके मुखसे चतुरनुयोग रूप चार वेद उत्पन्न । हुए, वे सृष्टिके रक्षक थे, इसलिए विष्णु कहलाये, प्रतिनिधिस्वरूप राजाओंकी सत्ता उठ रही है। उनके स्वेच्छाचारी शासनका बहुत कुछ अन्त विष्णुके समान उनके भी सहस्र नाम हैं, वे कल्याणके करनेवाले हैं अतएव शंकर भी हैं। । हो चुका है और हो रहा है । अब यह कोई इस प्रकारकी और भी सैकड़ों बातें हैं। नहीं मानता कि राजा लोगोंको ईश्वरके घरसे किसी पर शासन करनेका या अत्याचार और जैनधर्मके वर्तमान अनुयायियोंपर तो करनेका परवाना मिला हुआ है । अब ईश्वरवादका रंग बे तरह चढ़ा हुआ है। उनमें तो यही सिद्धान्त जगद्विजयी हो रहा है कि १०० में से लगभग ९५ मनुष्य ऐसे होंगे जो प्रत्येक जाति स्वराज्य प्राप्त करनेकी अधिकाऔरोंके समान जिन भगवानको ही सुख दुःख रिणी है और प्रत्येक मनुष्य अपने घरका राजा देनेवाले समझते हैं, उन्हींका नाम जपा करते है। इसी तरह अब इस सिद्धान्तके विश्वविजयी हैं, उन्हींकी सौगन्ध खाते हैं, और कहते हैं होनेका समय आ रहा है कि ससारमें गतानुकि हमारा अमुक काम सिद्ध हो जायगा, तो गतिकतासे, बिना किसी युक्तिप्रमाणके मान हम भगवानका अमुक उत्सव करेंगे, शिखरजी लिये गये ईश्वरका वास्तविक अस्तित्व नहीं है। गिरनारजीकी यात्रा करेंगे, अथवा मन्दिर बनवा मनुष्य सब तरहसे स्वतंत्र है। अपने सुख देंगे । गरज यह कि ये लोग पूरे ईश्वरवादी दुःखोंका वह आप ही कर्ता है और उनसे मुक्त बन रहे हैं । अन्तर केवल यही है कि इनके होनेकी शक्ति वह स्वयं ही रखता है । इस भगवान् श्रीकृष्ण, रामचन्द्र, शिव आदि न समय संसारमें इस तरहकी भावनायें जोरोंपर हैं होकर ऋषभदेव, पार्श्वनाथ आदि हैं । यह सब और अनेक सोशियालिस्टों तथा बोल्शेविकोंने हमारे पड़ौसके धर्मोंका प्रभाव नहीं तो और तो स्पष्टतः घोषणा कर दी है कि जब तक क्या है ? ईश्वरके विश्वासका लोप नहीं होता तब तक गरज किया औ र संसारसे गुलामी या दासता नहीं उठ सकती। 'ईश्वरवाद' की छाया दिखलाई देती है, वह । 1 जैनधर्मके अनुयायियोंको भी इस बड़े भारी स्वयं उसकी वस्तु नहीं है; किन्तु दसरोंके प्रभा- आन्दोलनके भागीदार बनकर अपने पुराने सिद्धान्तकी गरिमा प्रकट करना चाहिए । वसे उत्पन्न हुई है । वास्तवमें जैनधर्म अनीश्वर- । वादी है और धर्मोंके इतिहासमें यही उसकी -अनीश्वरवादी।
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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