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________________ जैनहितैषी - १३६ अवश्य पड़ा करता है और जिस धर्मके अनुयायियोंकी संख्या कम हो जाती है अथवा जिसका प्रचार कम हो जाता है, उस पर तो दूसरे बलवान और देशव्यापक धर्मोका प्रभाव बहुत ही अधिक पड़ता है । बिना उनके प्रभावोंसे प्रभावान्वित हुए वह रह ही नहीं सकता । जिस समय बौद्ध और जैनधर्मका प्रभाव देशव्यापी हो रहा था, उनके अहिंसामूलक उपदेशोंके प्रति जनसाधारणका बहुत ही अधिक झुकाव हो रहा था, उस समय हिन्दूधर्म पर इन दोनों ही ध'मौका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा था और उसका फल यह हुआ था कि हिन्दूधर्ममें से 'वैदिक हिंसा' की विधियाँ निकाल दी गई या परिवर्तित कर दी गई और दूसरी सैकड़ों बातों में संशोधन परिवर्तन किया गया । इस विषयमें किसी किसी विद्वानकी तो यहाँ तक सम्मति है कि वर्तमान हिन्दूधर्म प्राचीन हिन्दूधर्मका मूल स्वरूप नहीं किन्तु संस्कृत ( संस्कार किया हुआ ) स्वरूप है और उसके अंग प्रत्यंगोंमें बौद्ध-जैनधर्मो के प्रभावके चिह्न ं सुस्पष्टरूपसे दृष्टिगोचर होते हैं । इसी प्रकार जब जैनधर्मका ह्रास हुआ, और हिन्दूधर्मका प्रभाव फिर बढ़ा, तब स्वयं उसे हिन्दूधर्म के प्रभावसे प्रभावान्वित होना पड़ा । २० - २५ करोड़ हिन्दुओंके बीचमें १०-१५ लाख जैनधर्मानुयायी रहें और उन पर उनका प्रभाव न पड़े, यह संभव नहीं । जैनधर्मने जिस प्रकार हिन्दूधर्मको कुछ दिया था, उसी प्रकार उससे कुछ लिया भी । हिन्दूधर्मसे या ब्राह्मणधर्मसे हमने क्या क्या लिया है, इसका विवेचन किसी अन्य लेखमें किया जा सकेगा; यहाँ केवल अनीश्वर वादका प्रसंग है, अतएव इसके सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि हिन्दूधर्मके प्रभावसे हमने अपने अनीश्वरवाद पर ऐसा मुलम्मा चढ़ा दिया है, कि वह साधारणदृष्टिसे देखनेवालोंको [ भाग १४ ईश्वरवाद जैसा ही प्रतीत होता है । केवल विशेषज्ञ ही यह जान सकते हैं कि जैनधर्म में वस्तुतः ईश्वरके लिए कोई स्थान नहीं है । ईश्वर शब्दके वास्तविक अर्थ हैं - ऐश्वर्यशाली, वैभवशाली, शक्तिशाली, स्वामी, अधिकारी, कर्तृत्ववान् आदि । इहलोकमें जो दर्जा स्वतंत्र सम्राट या महाराजका है, वही परलोकमें ईश्वर या परमेश्वरका है । परन्तु जैनधर्म इहलोक या परलोकमें इस प्रकार के किसी सत्ताधीशको माननेसे सर्वथा इंकार करता है । उसका ईश्वर किसी साम्राज्यका स्वेच्छाचारी शासक तो क्या होगा, किसी रिपब्लिक ( प्रजातंत्र देश ) का प्रेसीडे - ण्ट भी नहीं है, यहाँतक कि रूसकी सोवियट - सरकारका प्रधान भी नहीं है । वह एक ईश्वरको भी तो नहीं मानता है । उसके यहाँ यदि ईश्वर वह एक नहीं, लाखों करोड़ों असंख्य अनन्तकी संख्या में है । अर्थात् जैनमतानुसार इतने ईश्वर हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती और आगे भी वे बराबर इसी अनन्त संख्या में अनन्त कालतक होते रहेंगे । क्योंकि जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक आत्मा अपनी अपनी स्वतंत्र सत्ताको लिए हुए मुक्त हो सकता है । आजतक ऐसे अनन्त आत्मक् हैं और आगे भी होंगे । ये मुक्त जीव ही जैनधर्मके ईश्वर हैं । इन्हीं में से कुछ मुक्तात्माओंको - जिन्होंने मुक्त होनेके पहले संसारको मुक्तिका मार्ग बतलाया था — जैनधर्म तीर्थकर मानता है । जैनधर्मके ये मुक्तात्मा या ईश्वर संसार से कोई सम्बन्ध नहीं रखते । न सृष्टिसंचालन कार्यमें उनका कोई हाथ है, न वे किसीका भला बुरा कर सकते हैं, न किसी पर कभी प्रसन्न होते हैं और न अप्रसन्न, न उनके पास कोई ऐसी सांसारिक वस्तु है जिस हम ऐश्वर्य, वैभव या
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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