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________________ २६६ MOHANI जैनहितैषी। iiiiiiiiiiiiiiiiii मालूम नहीं; परन्तु श्वेताम्बरसमाजमें शास्त्र- सभाके कार्यकर्ताओंको हम उनके इस दानकी पद्धति इतनी अच्छी है कि बिना कि- पुण्यकार्यके उपलक्ष्यमें अनेकानेक धन्यवाद देते सी अच्छे फण्डके भी सभा इस कार्यको अच्छी हैं और चाहते हैं कि वह इसी तरह अनवरत परितरह चला सकती है। जितने ग्रन्थ हमारे पास श्रम करके सारे श्वेताम्बर साहित्यको सर्वसाधारसमालोचनार्थ आये हैं प्रायः उन सबके ही मुख- णके लिए सुलभ कर दे और अपने दिगम्बरपृष्ठोंपर लिखा है कि यह ग्रन्थ अमुक श्रावक समाजसे आग्रह करते हैं कि वह भी इस ओर या श्राविकाके दान-द्रव्यसे छपाया गया। देखिए शीघ्र ध्यान दे और अपने सबसे बड़े कर्तव्यकैसी अच्छी प्रथा है ! इस प्रथाका फल आप ग्रन्थप्रकाशन-का पालन करे । स्वर्गीय दानदेखेंगे कि कुछ ही वर्षों में हजारों ग्रन्थोंका उद्धार वीर सेठ माणिकचन्दजी जौहरीके स्मारकमें हो जायगा। जो ग्रन्थमाला निकाली गई है उसका कार्य हमने श्वेताम्बर सम्प्रदायमें साधुओं या मनियोंकी उक्त आत्मानन्द-ग्रन्थमालाके ढंग पर ही शुरू संख्या अधिक है और धार्मिक कार्यों में ये ही किया है। यदि हमारा समाज इसकेद्वारा उक्त सम्प्रदायके नेता समझे जाते हैं । इनके शास्त्रदान करनेकी ओर अनुरक्त होगा तो दिगउपदेशों और शासनोंको लोग मानते भी बहत म्बर साहित्यका बहुत कुछ उद्धार होने लगेगा। हैं । एक तो शास्त्रदानकी प्राचीन प्रथा श्वेताम्बर का " कलकत्तेकी सनातनजैनग्रन्थमालाकी ओर समाजमें अभीतक अस्खलित रीतिसे चली आर भी हमारा ध्यान जाना चाहिए । उसके द्वारा कई बड़े बड़े महत्त्वके ग्रन्थ प्रकाही है, दूसरे उनके कुछ साधुओंका ध्यान इस शित हो चुके हैं । यदि उसकी आर्थिक स्थिति विषयकी ओर अधिक रहने लगा है । बहुत थोड़े : अच्छी हो जाय तो उसके द्वारा भी बहुत प्रयत्नसे ही वे श्रावकोंको शास्त्रदानकी ओर काम हो सकता है। प्रवृत्त कर सकते हैं । पर हमारे दिगम्बर सम्प्रदा आत्मानन्द ग्रन्थमालाके संपादकोंका ध्यान यकी अवस्था इससे भिन्न है। एक तो मुनियोंके कि एक बातकी ओर आकर्षित करके हम इस अभावसे हमारे यहाँ शास्त्रदानकी प्रथाका ही प्रायः लेखको समाप्त करेंगे । उसके जितने ग्रन्थ देखअभाव हो गया है, दूसरे जो थोड़े बहुत त्यागी नेका हमें सौभाग्य प्राप्त हुआ है उनमें एक पंचब्रह्मचारी हैं उनमें प्रायः अक्षरशत्रु ही अधिक सत्रको छोडकर शेष सब ग्रन्थ विक्रमकी बारहै अतः वे इस कार्यकी ओर दृष्टि ही क्यों देने हवीं शताब्दिके बादके हैं और उनमें भी अधिलगे ? रहे पण्डित लोग-जिनका कि समाजके कांश पन्द्रहवीं शताब्दिके पीछेके रचे हुए हैं । ऊपर कुछ प्रभाव है-वे या तो ग्रन्थोंके छपानेको हम यह मानते हैं कि पिछले साहित्यको प्रकापाप समझते हैं, या कमसे कम अपने अन्न- शमें लानेकी भी कम आवश्यकता नहीं है, तो दाता सेठोंको खुश रखनेके लिए-छापेकी चर्चा- भी अभी हमें सबसे अधिक उद्योग प्राचीन साहिसे दूर रहना चाहते हैं । वे यदि चाहें तो प्रत्येक त्यको प्रकाशित करनेके लिए करना चाहिए । उत्सवमें, मन्दिरप्रतिष्ठामें, व्रतोद्यापनमें, तथा आशा है कि हमारी इस सूचना पर सभा ब्याह-शादियोंकी खुशीमें शास्त्रदान करनेकी विचार करेगी। पद्धतिको जारी कर सकते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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