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________________ पुनर्विवाह विधेय नहीं निषिद्ध है। NE " जिस हेतुसे विवाहको आवश्यकता बतलाई गई इस विषयमें अपने कुछ विचार प्रकट किये थे। है उसकी पूर्तिके लिए यह आवश्यक है कि वह एक आज हम स्वर्गीय पं० मणिलाल नभू भाई द्विवेदी और अचल होना चाहिए। ये दोनों शर्ते इतनी अधिक बी.ए.के. विचार उनके एक पुराने लेख परसे यहाँ जरूरी हैं कि वे उस जगह भी-जहाँ कि स्त्र पुरुषका उद्धृत करते हैं । आशा है कि विचारशीलपाठअनुचित सम्बन्ध होता है-मालूम पड़ जाती हैं। प्रेममागेमें अचल न रहनेसे, तथा प्रेमको अपने सभी- क इनका गंभीरतापूर्वक अध्ययन करनेका कष्ट तेका एक साधारण साधन समझ लेनेसे सुखकी प्राप्ति हो सकती है, यह कहना व्यवहार तथा नी. विचारशील लेखक थे । वे पुराने आचार तिके सिद्धांतोंकी गहरी अज्ञानता प्रकट करना है। विचारोंके पोषक होनेपर भी नये विचारोंको सहन .....मनुष्यकी स्वाभाविक अस्थिरता और तरंगोंको करनेवाले थे। नियममें रखनेके लिए आवश्यक है कि समाज उसके कार्योंमें हस्तक्षेप करे । यदि ऐसा न किया जायगा पुनर्विवाहका विषय बहुत ही विवादग्रस्त है। तो सुखके लिए एकके बाद एक व्यर्थ और दुःख- इसका निर्णय तब तक नहीं हो सकता है जब कारक प्रयत्न करते करते मनुष्यका जीवन सर्वथा तक इन बातोंका मर्म अच्छी तरह न समझ लिया निष्फल और नीचा बन जायगा।" जायः-१ संसारमें नीति और धर्मकी रचनाके -आगस्ट काम्टी। सिद्धान्त किस प्रकारके हैं, २ संसारको सुखमय जैनसमाजमें पुनर्विवाहका प्रश्न बहुत सम- बनानेके लिए वे सिद्धान्त किस प्रकारके होने यसे दबाया जा रहा था। आवश्यक होने पर भी चाहिए ३ और हमारे देशके पूज्य स्त्रीपुरुषों में एक पक्षके प्रभावके कारण इसकी चर्चा खुलकर जो अनुकरणीय उत्साह, साहस, और शौर्य आदि नहीं होने पाती थी; परंतु देखते है कि अब इसकी गुण थे वे किस प्रकारके सिद्धान्तों पर चलनेसे चर्चा रुक नहीं सकती । चर्चाका न होना इस उत्पन्न हुए थे। बातका प्रमाण नहीं है कि जैनसमाजमें इस प्रश्नका जगतमें परंपरासे यही व्यवहार चला आ निर्णय हो चुका है अथवा सारा ही समाज पुनर्वि- रहा है कि धर्मनीतिका सदुपदेश एक ओर तो वाहके विरुद्ध है, इस लिए आवश्यक जान पड़ता कठिन, कष्टकर परन्तु शुभफलदायक मार्गकी है कि इस प्रश्नका खूब खुलकर विचार किया जाय योजना करता है और दूसरी ओर जिसे देख और इसकी अनुकूल और प्रतिकूल दोनों बाजु- कर दया आ जाय ऐसे कष्टमें पड़ा हुआ ऑकी अच्छी तरह जाँच की जाय। मनष्य उससे छुटकारा पानेका यत्न करता है। हितैषीके पिछले प्रथम अंकमें जनहितेच्छुके परन्तु विचार करनेसे मालूम होता है कि सम्पादक श्रीयुत बाड़ीलाल मोतीलालजी शाहने हमारी धर्मबुद्धि हमें जो ऊँचा स्वरूप-पवित्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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