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________________ उमर जैनधर्म और जैनजातिके भविष्यपर एक दृष्टि । | समस्त जनसंख्या | विवाहित पुरुष ०-५ ७५, ३१६ ५- १५ १,४१, २२७ रंडुवे और विधवायें स्त्रियाँ | पुरुष स्त्रियाँ पुरुष | स्त्रियाँ ९४८ ७४, ७२३ ७५, १७२ १६८ ९२ ६,७१० २५, ३४९ १,३४, ०११ ९९,७९७ ५०६ १, १६७ ९९, ५०७ ६, २०७ २३,७०८ ७४, ४३९ ८,९५६ ५२९ ३३,०३६ ७७,५९९ १५-४५ ३,२२,०११ २,९८,३२८ १,९८,७९६ २,१७,६८२ ४५- १,०४,९९९ १,०३, ७७६ ६३,००७ २५,६४८ जोड़ ! ६,४३,५५३ | ६,०४ ६२९ | २,६८,९३८ | २,६९,६२७ | ३,१७,१९७ | १,८१,७०५ | ५७४१८ | १,५३२९७ लगभग २० जातियाँ तो ऐसी हैं जिनमें १०० से अधिक स्त्री पुरुष नहीं । उस इस विवरण से एकदम स्पष्ट हो जाता है कि जिस वयमें अधिक सन्तान उत्पन्न हो सकती है अर्थात् १५- ४५ वर्षतक, उस वयके ३,२२,०११ पुरुषोंमेंसे केवल १, ९८, ७९६ ही विवाहित हैं और ही वयकी २,९८,३२८ स्त्रियोंमेंसे ८०, ६४६ अविवाहित अथवा विधवायें हैं । अथवा लगभग ५ पुरुषोंमेंसे २ और चार स्त्रियोंमेंसे १ या तो अविवाहित है या विधुर अथवा विधवा है । ४० प्रतिशत पुरुष, और २५ प्रतिशत स्त्रियाँ अविवाहित ! यह संख्या वास्तव में बहुत ही अधिक है और इसमें सन्देह नहीं कि वे अपनी इच्छा से अविबाहित नहीं रहे हैं । अमरीका और यूरोपके लोग बहुधा निर्धनता के कारण विवाह नहीं करते; किन्तु भारतवर्षमें और जैनोंमें ऐसा नहीं है । विवाहके मार्गमें खास रुकावट जो है वह यह है कि जैन-समाजमें अगणित छोटी छोटी जातियाँ हैं जिनमें से बहुतों में केवल २ - ३ सौ स्त्री पुरुष ही बच गये हैं एक जातिका पुरुष दूसरी जातिमें विवाह नहीं कर सकता । यही नहीं, एक जातिमें बहुतसे गोत्र होते हैं और यदि विवाह होता है तो वर कन्याकी और से चार चार गोत्रोंको छोड़कर विवाह हो सकता है अर्थात् वर अपना गोत्र, अपने नानाका गोत्र, अपने पिताके नानाका गोत्र और अपनी माता के नानाका गोत्र इनमेंसे किसी भी गोत्रकी कन्यासे विवाह नहीं कर सकता और इस ही प्रकार कन्याके पक्षमें भी वर चार गोत्रों में से किसीका नहीं होना चाहिए । यह तो हुई राजपूतानेकी बात; मध्यप्रदेश और है मध्यभारत में यह नियम और भी कड़ा वहाँ कई जातियोंमें आठ आठ गोत्रों को छोड़कर विवाह होता है । 1 ऐसी दशा में यदि किसी जातिमें १०० स्त्री पुरुष हैं तो वहाँ इस प्रकार गोत्र छोड़े नहीं जा सकते और युवकोंको अविवाहित । Jain Education International अविवाहित स्त्रियाँ | पुरुष ७६, २१२ ४२५ १, २६, ३१३ १८५. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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