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________________ २६४ ராமாயாயாயாயாயாயாயாய जैनहितैषीimmiffitimfuiifimmitml हर्षका विषय है कि हमारे श्वेताम्बरी भाइ- उत्साही मंत्री महाशयने नीचे लिए २९ ग्रन्थ योंने इस बातको समझ लिया है और उन्होंने हमारे पास समालोचनाके लिए भेजनकी कृपा है अभी अभी ऐसी कई संस्थायें स्थापित कर डाली जिन्हें हम कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हैं:हैं। बम्बईके 'सेठ देवचन्द लालचन्द-पुस्त- १पंचसूत्र-आचार्य हरिभद्रकृतव्याख्याकोद्धार भण्डार' का परिचय हम पहले कई सहित । पत्रसंख्या २९। इसकी व्याख्या विक्रमकी बार दे चुके हैं जिसमें एक लाख रुपयेसे अधि- छठी शताब्दीकी लिखी हुई है । मूल ग्रन्थ इससे ककी पँजी है और जिसके द्वारा अभी तक भी पहलेका होना चाहिए। कोई ३२-३३ ग्रन्थ छपकर प्रकाशित हो चुके २ धर्मरत्नप्रकरण-श्रीशान्तिसृरिकृत । पत्र हैं। आज हम एक और ऐसी ही श्वेताम्बर ८४ । यह विक्रमसंवत् ११६१ का रचा संस्थाका परिचय देना चाहते हैं जो अपने ढंग. हुआ है। की एक ही है और जिसने थोड़े ही समयमें ३ देवबन्दन-गुरुबन्दन-प्रत्याख्यानआशासे आधिक काम करके दिखलाया है। देवेन्द्रसरिकृत मूल और सोमसुन्दरकृत टीका ___ इस संस्थाका नाम, 'आत्मानन्द जैन सहित । ५०७० । सभा ' है । सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर साधु स्वर्गीय ४ सिद्धपंचाशिका-देवेन्द्रसूरिकृत । आत्मानन्दजीकी स्मृतिमें लगभग १३-१४ प० १४। वर्ष पहले भावनगरमें इसकी स्थापना हुई थी। ५ विचारसप्ततिका-महेन्द्रसरिकृत । इसके मंत्री श्रीयुत सेठ वल्लभदास त्रिभुवन पत्र १७ । उक्त तीनों ग्रन्थ विक्रमकी १३ वीं दासजी गाँधी हैं । सभाकी ओरसे आत्मानन्द सदीके हैं। नामका एक मासिकपत्र भी निकलता है । भाव- ६ कुमारपालप्रबन्ध- पत्र १२० और मारवाला नगरमें एक और संस्था है जिसका नाम, जन- ७ श्राद्धगुणविवरण-पत्र ८४ । श्रीजिधर्मप्रसारक सभा है। यह सभा बहुत पुरानी नमण्डनगणिकृत । है और जैनग्रन्थोद्धारके कार्यमें उसने सबसे । ८ श्रावकव्रतभंगप्रकरण–पत्र ८ । आधक कार्य किया है। वह अब तक सैकड़ा समयसारप्रकरण-देवनन्दाचार्य कत ग्रन्थ प्रकाशित कर चुकी है । उसीका अनुसरण स्वोपज्ञटीकायुक्त । प० ४४। करके आत्मानन्दजैनसभाने भी दो तीन वर्षसे जैनग्रन्थोंके छपानेका काम शुरू कर । १० धन्यकथानक-दयावर्द्धनवत । पत्र ९। दिया है और इस कार्यमें उसने बहुत बड़ी ११ सम्यक्त्वकौमुदी-जिनहर्षगाणसफलता प्राप्त की है। कृत। पत्रं ९०। अब तक इस सभाकी ओरसे कोई ५० ग्रंथ १२ रत्नपालनृपकथा-सोममण्डनगाणप्रकाशित हो चुके हैं जो संस्कृत और मागधीभाषा- कृत । पत्र ३२ । में मूल या संस्कृतटीका सहित हैं । इनके सिवा १३ गुरुगुणषत्रिंशत्षट्त्रिंशिका-रत्नसभाके मुखपत्र आत्मानन्द प्रकाशके पौषके अंक शेखरसूरिकृत । प० ९०। जिन छपे हुए ग्रन्थोंकी सूची दी है उनकी ये नौ ग्रन्थ विक्रमकी १६ वीं शताब्दिके संख्या ३४ है । छपे हुए ग्रन्थोंमेंसे सभाके बने हुए हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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