SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ATIRLIAMAIRALAYARILALLAGALLAHABALILITAMARHILAHABHARA दिगम्बर और इवेताम्बरसमाजका ग्रन्थप्रकाशन कार्य । - amalitimifinitifiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiii HPrimeHIYAYPARTTPRIYAffirmeH EATRITTRITIRTHIRS २६३ वाले हैं । तब इनकी परवा न करके कहा जा हमने स्वयं देखे हैं जिन्होंने अपनी चार पाँच सकता है कि दिगम्बरसमाजमें छापेकी जीत हजारकी पूँजीमेंसे दो तीन हजार रुपया लगाहो चुकी है-उसकी उपयोगिताको प्रायः कर मन्दिर बनवानेका पुण्य लूट लिया ! बुन्देलसभीने स्वीकार कर लिया है । तो भी खण्ड प्रान्तने तो इस विषयमें सबका नम्बर ले दिगम्बरसमाजमें ग्रन्थ-प्रकाशनका काम लिया है । यदि वहाँके तमाम मन्दिरोंमेंकी जितना होना चाहिए उतना नहीं हो रहा जिन-प्रतिमाओंकी गणनाकी जाय, तो वह है-बहुत ही कम हो रहा है। और संस्कृत, जैनोंकी संख्याकी अपेक्षा अधिक ही निकलेगी, प्राकृतके ग्रन्थोंके उद्धारके लिए तो अभी तक कम नहीं ! सोनागिर तीर्थपर मन्दिरोंके मारे हमने कुछ भी नहीं किया है। ऐसी संस्था तो जगह नहीं है-सारा पर्वत मन्दिरोंसे ढक हमारे यहाँ एक भी नहीं है जो अनवरत रूपसे गया है, तो भी किसी धर्मात्माने अभी हाल ही बिना किसी प्रकारके कष्टके इस कामको करती वहाँ एक और मन्दिर बनवानेका शुभ संकल्प हो । पाठकोंको आगे चलकर मालूम होगा कि किया है ! परन्तु श्वेताम्बर-समाजमें यह बात श्वेताम्बर सम्प्रदायमें ऐसी अनेक संस्थायें हैं जो नहीं है । मन्दिर और प्रतिष्ठाओंका रिवाज इस संस्कृत, प्राकृतके कई सौ ग्रन्थ प्रकाशित कर समाजमें बहुत ही कम है । यही कारण है कि चुकी हैं। उनके पास पुस्तकोद्धार जैसे अच्छे कार्यों में खर्च करनेके लिए धन रह जाता है, परन्तु . इसका कारण क्या है ? क्या दिगम्बर-सम्प्र- हमारे समाजके पास ईंट पत्थर चूना और लड्डुदायके लोग कंजूस हैं ? अपने श्वेताम्बर भाइयोंकी ओंमें खर्च होकर इतना थोड़ा धर्मार्थधन रह अपेक्षा क्या वे धार्मिक कार्योंमें कम पैसा खर्च जाता है कि उससे पुस्तकोद्धारका कार्य जैसा करते हैं ? नहीं, इस विषयमें वे अपने भाइयों माश्या चलना चाहिए वैसा नहीं चल सकता। की अपेक्षा अधिक नहीं तो कम उदार भी नहीं । दिगम्बरसम्प्रदायका अभी तक जितना हैं। इस बातको हम दृढ़तापूर्वक कह सकते हैं साहित्य प्रकाशित हुआ है उसका अधिकांश उन कि यदि दोनों संम्प्रदायोंके धार्मिक खर्चेका जोड़ लोगोंके द्वारा हुआ है जो इस कार्यको व्यवसायकी लगाया जायगा, तो वह प्राय बराबर ही निकले- दृष्टिसे करते हैं: परन्तु इस ओर गहरी दृष्टि गा। परन्तु खर्चके मार्ग दोनोंके भिन्न भिन्न है। डालनेसे मलम होता है कि व्यवसायियोंके द्वारा दिगम्बरसमाजका सबसे अधिक रुपया मन्दिर जैनसाहित्यका उद्धार होना असंभव नहीं तो बनवाने और प्रतिष्ठा करवानेमें खर्च होता है। कष्टसाध्य अवश्य है । जैनसाहित्यका आधिक ऐसा कोई वर्ष नहीं जाता है जिसमें कमसे कम भाग संस्कृत और प्राकृत भाषामें है और इन दोनों पचास मान्दिर न बनते हों और बीस पच्चीस प्रति- भाषाओंके जाननेवाले हमारे यहाँ इतने कम हैं ठायें न होती हों! अभी थोड़े दिन पहले जबलपु- कि उनके लिए ग्रन्थ छपवाकर कोई भी व्यवरके पास एक रथप्रतिष्ठा हुई थी । कहते हैं कि सायी लाभ नहीं उठा सकता ! अतः जब तक प्रतिष्ठा करानेवालेने अपनी प्रायः सबकी सब पूँजी ऐसी संस्थायें न खोली जायँगी, जो केवल ग्रन्थोलगा दी-मुश्किलसे हजार दो हजारकी पूँजी द्धारकी दृष्टिसे इस कामको करें तब तक जैनउसके पास शेष रही होगी ! ऐसे कई धर्मात्मा साहित्यका उद्धार नहीं हो सकता, यह निश्चय है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy