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________________ दिगम्बर और श्वेताम्बर समा जका ग्रन्थप्रकाशनकार्य । आत्मानन्द-ग्रन्थरत्नमाला। शायद ही कोई धर्म या सम्प्रदाय होगा, किसी भी धर्मकी रक्षा और प्रसारके लिए जिसने इसका विरोध न किया हो; परन्तु इसकी आश्चर्यजनक सुविधाओंके आगे सभीको सिर यह आवश्यक है कि उस धर्मका साहित्यग्रन्थभण्डार प्रकाशित किया जाय और इतना झुकाना पड़ा-किसीने कुछ वर्ष आगे और किसीने पीछे-इसे स्वीकार कर ही लिया। सुलभ कर दिया जाय कि केवल उस धर्मके पालनेवालोंको ही नहीं; किन्तु इतर जिज्ञा- औरोंके समान जैनधर्मके अनुयायियोंने भी सुओंको भी वह विना कष्टके प्राप्त हो सके । इसका विरोध किया और खूब किया । पर जबसे मुद्रणकलाका-छापेकी कलाका आवि- छापेका प्रबल प्रवाह रुका नहीं -पक्केसे पक्के ष्कार हुआ है, तबसे ग्रन्थ-प्रसारका काम बहुत धर्मात्माओंकी भी कट्टरता उसके पूरमें बह गई। ही सहज-आश्चर्यजनक सुगम -हो गया है । जहाँतक हम जानते हैं, सबसे पहले श्वेताम्बर इसकी कृपासे बड़ेसे बड़े ग्रन्थकी लाखों प्रतियाँ सम्प्रदायके ग्रन्थोंका ही छपना शुरू हुआ । कुछ ही दिनोंमें या महीनों में तैयार हो सकती दिगम्बीरयोंमें इसकी चर्चा बहुत पीछे हुई । हैं, जब कि पहले एक ग्रन्थकी एक ही प्रति जिस समय दिगम्बरों के १०-२० ही ग्रन्थ करानेमें महीनों लग जाते थे । यह छापेकी ही छपे थे उस समय श्वेताम्बरसम्प्रदायका विरोध कृपाका फल है जो ईसाइयोंकी धर्मपुस्तक प्रायः शान्त हो चुका था। इसी कारण इस बायबिलकी करोड़ों प्रतियाँ-शताधिक भाषाओंमें विषयमें श्वेताम्बरोंकी अपेक्षा दिगम्बर समाज छप कर प्रतिवर्ष बिकती हैं और आज दुनियामें बहुत पीछे है । यद्यपि दिगम्बर समाजमें भी ईसाई धर्मके स्वरूपको समझनेवालोंकी संख्या छापेका विरोध निर्जीव हो चुका है-यहाँ तक सबसे अधिक है। कि मालवा जैसा कट्टर शुद्धाम्नायी प्रान्त भी छापे___ यूरोपकी देखादेखी हमारे देशवासियोंका ध्यान का अनुमोदक हो गया है, तो भी अभी इस भी छापेकी कलसे लाभ उठानेकी ओर गया; विरोधका सर्वथा निमूलन करनेमें दिगम्बर परन्तु जिस तरह और सब सुधारोंको हमने विना सम्प्रदायको दो चार वर्ष और भी लग जायगे। विरोध किये ग्रहण नहीं किया, उसी तरह परन्तु अब विरोधी लोग बहुत ही थोड़े रह इसको भी नहीं किया । भारतमें जितने धर्म हैं, गये हैं और जो हैं वे समाजके हानिलाभकी उन सबही धर्मके अनुयायियोंने शुरूशुरूमें अपने बहुत ही कम परवा करनेवाले अथवा 'संसारमें धर्मग्रन्थोंके छपानेका विरोध किया । यहाँका क्या हो रहा है' इससे एकदम अज्ञान रहने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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