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________________ JUMARITHALALIBAITHAIMIRAIMIMALA _ विविध प्रसङ्ग। ifinitititifiilfiminimun २५३ हार रक्षाके लिए हमने यही ठहरा लिया है कि १८ आचार-दिनकर और मनुष्य चाहे जैसी अनीतिका सेवन करे परन्तु वह यज्ञोपवीत । जबतक अपने मुँहसे तीर्थंकरोंका नाम जपता यज्ञोपवीत और जैनधर्म' शीर्षक नोट (पृष्ठ रहे और जैनधर्म सच्चा है' ऐसा कहता रहे तबतक २४२) में जिन साधु महोदयके पत्रका एक अंश उसे जैनी ही कहना चाहिए। जब ऐसी धारणा है उद्धत किया गया है, उन्हींके दूसरे पत्रमें लिखा हैतब उत्तम मध्यम और कनिष्ठ इन तीन प्रकारके यहाँ पर मझे 'आचार-दिनकर' मिल गया। लोगोंके जैनधर्ममें स्थान देने से क्या हानि है ? देखनेसे मालूम हुआ कि ग्रन्थान्तमें, कर्तीने अपनी "इन बातोंका विचार बहुत कुछ शान्तिके गच्छपरम्परा वगैरहका उल्लेख करनेवाली लम्बी साथ करने की आवश्यकता है। और और सधार.. प्रशस्ति लिखी है। इस प्रशास्तिमें यह भी लिखा है कि इस ग्रन्थकी रचना इवताम्बर और दिगम्बर कोंके समान हमारे लेखकने विषयसेवनको पुष्टि . सम्प्रदायके अनेक आचारविषयक ग्रन्थोंका अव. देने या अधर्म सेवनका पक्ष नहीं किया है । लेखक लोकन करके की गई है। इससे यह अनुमान -निश्चितयह बतलाना चाहते हैं कि विधवाओंकी दशा ॥ रूपसे-हो सकता है कि इसमें जो श्रावकोंको 'जनेऊ' सुधारने के लिए समाजका संगठन फिर नये सिरेसे पहननेका विधान बताया गया है वह किसी दिगकरना होगा, तथापि यदि आपको और दूसरे धर्म- म्बर ग्रन्थका ही अनुसरण है । क्योंकि दिगम्बर प्रेमी महाशयों को उनकी किसी दलीलमें कोई दोष सम्प्रदायमें एककी अपेक्षा अधिक ग्रन्थोंमें 'जनेऊ' मालूम पड़े, तो उसकी निनी तौरसे या सामयिक पत्रों पहननेका विधान है और श्वेताम्बरसम्प्रदायकेद्वारा चर्च होनी चाहिए। इससे समाजको लाभ ही होगा। आचारदिनकरको छोड़कर एकमें भी नहीं।" - "सेठजी, अंतमें मैं आपसे एक ही विनय करना १९ 'दिगम्बरजन ' के लेखक । चाहता हूँ और वह यह कि जब गत कई वर्षों में उक्त साधु महोदय अपने इसी पत्रमें लिखते हैंआपने या किसी जैनभाईने मेरे लेखोंमें, विचारोंमें " हितैषी और हितेच्छुमें जो पुनर्विवाहविषयक या व्यवहारमें कोई दोष नहीं देखा तब क्या केवल गंभीर और तात्त्विक विचार प्रकट किये जाते हैं एक ही लेखको स्थान देनेसे मैं अधर्मका हिमायती हो उनके सम्बन्धमें सूरतके 'दिगम्बर जैन ' के पिछले गया ? जिन महाशयने यह लेख लिखा है अंकमें एक महाशय के कुछ उद्गार मेरे पढ़नेमें आये, वे जैनसमाजके एक प्रसिद्ध लेखक. विचारक और तो मुझे बड़ी हँसी आई । लेखक अपने विचारसे धर्मसंघक हैं, उन्होंने धर्मसेवा के लिए अनेक कष्ट सहे र खण्डन तो करने चले हे पुनर्विवाहका और सारे लेखमें श्लोक भर दिये हैं पतिव्रता सीता आदिके हैं, उनकी महात्मा तिलक, खापर्डे आदि देशभक्तोंने वृत्तान्तके। जो मनुष्य इस प्रकार पुराने ग्रन्थोंक प्रशसा का है । एस पुरुषका भा एक विषयक एक श्लोकोंकी सेनाको विना समझे ही दिन विचारकों लेखके लिए अधर्मी समझना मेरी दृष्टि से तो साहस सामने लड़ने के लिए भेजता है उसे इतना तो विचाही है । इस चर्चासे न उनका कोई निजी स्वार्थ है रना चाहिए था कि शत्रु किस दिशामें खड़ा है और और न मेरा ही तो भी मैं आपलागों की दलीलें इन निर्जीव सिपाहियोंमें बन्दूक उठानेकी भी शक्ति तत्पर हैं और आप की समाजसेवा- है या नहीं। 'शत्रु आया' इतने शब्दोंको सुनकर की जिज्ञासाको-जो कि आपकी चिहीसे प्रत्यक्ष मा. . ___ ही, चाहे जिस दिशामें दौड़ पड़नेसे और आँख मीच. कर जो हाथमें आया उसे उठाकर फेंक देनेसे ही लम पडती है-देखकर आपको हार्दिक धन्यवाद जो कात्र परास्त यदि हो सकता तो जर्मन शत्रुका परादेता हूँ। मैं चाहता हूँ कि हमारे समाजभ विचार जय करनेमें मित्रों को इतना बिलम्ब न लगता। सहिष्णुताका उदय हो और निजी रागद्वेष आदिसे परन्तु इतनी विचारशक्ति यदि हमारे इन श्रुतज्ञादर रहकर शुभनिष्ठा और समाजसेवाके आशयसे नियों में होती तो ये इस जड़समाजमें कुछ न कुछ प्रत्येक विषयका भलीभाँति ऊहापोह होता रहे चैतन्यका संचार अवश्य करते।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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