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________________ २४८ जैनहितैषी - हमारी सामाजिक और शारीरिक दशा बिगड़ती जा रही है, तथा बन्धुभावका कार्यक्षेत्र संकुचित होकर एकता होनेके बदले फूट बढ़ती जाती है । हमें समझना चाहिए कि वर्तमान का जातिसंगठन हमारे धर्म और समाजशास्त्र के नियमोंसे विरुद्ध है। अतः इस मुख्य और महत्त्व - के प्रश्नकी ओर सबको ध्यान देना चाहिए। " अपना दूसरे सम्प्रदायों के साथ और देशके साथ सम्बन्ध बतलाते हुए आपने कहा - " हमें यह न भूलजाना चाहिए कि हमें जैनसमाजके दूसरे पन्थोंके साथ हिल मिलकर रहना है तथा भारतनिवासी होने के कारण हमें अपने देश संबन्धी कर्तव्य भी करने हैं और अनेक सत्व प्राप्त करने हैं । सारी जैनजातिके हितके लिए 'जैन एसोसियेशन आफ इंडिया ' तथा 'भारत जैनमहामण्डल' आदि संस्थायें स्थापित हुई हैं । इन संस्थाओं के साथ रहकर भी हमें काम करना है। हम सब भगवान् महावीर स्वामीके पुत्र हैं और थोड़ेसे मत मतान्तरोंको यदि हम न गिनें तो हम सबकी मानता भी एक ही है । सबका अन्तिम साध्य मोक्षप्राप्ति ही है | अतएव बन्धुभावकी विशाल भावनाके साथ हम सबको मिल कर जैनजातिकी भलाई करनेके यत्न करना चाहिए । ” व्याख्यानके अन्त में आपने निम्नलिखित बहुमूल्य इच्छा प्रकट की “मेरी आन्तरिक अभिलाषा है कि हमारा समाज धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक विषयोंमें आगे बढ़े, एकताके सूत्रमें बँधे और उच्च जीवन व्यतीत करने लगे । उसकी प्रत्येक व्यक्ति पहले मनुष्यत्वके और पीछे जैनत्व के कर्तव्योंका पालन करने के लिए शक्तिवान् बने और अन्तमें इस भव और परभवके सुधारने के लिए बुद्धिपूर्वक तत्पर हो । " Jain Education International १५ कान्फरेंस के प्रस्ताव | कान्फरेंस ने सब मिलाकर १८ प्रस्ताव पास किये, जिनमें दश प्रस्ताव केवल शिक्षासम्बन्धी थे । यह अब अच्छी तरहसे निश्चित होता है कि उन्नति के तमाम साधन शिक्षा के हाथ में हैं, इसलिए सबसे अधिक जोर शिक्षा पर ही देने की जरूरत है । बम्बईके शिक्षाखातेके डायरेक्टरने जैन विद्यार्थियों के शिक्षासम्बन्धी अंक प्रकाशित करनेकी स्वीकारता दे दी है । इसलिए कान्फरेंस ने बम्बईके शिक्षाखातेको धन्यवाद देने और अन्यप्रान्तोंके शिक्षाखातेको प्रेरणा करने का भी एक प्रस्ताव पास किया । दिगम्बर कान्फरेंस को भी इस विषय में प्रयत्न करना चाहिए । इससे हमें अपनी शिक्षाकी दशाका ज्ञान होगा। एक प्रस्ताव हिन्दी यूनीवर्सिटीके सम्बन्धका था । उसमें यूनीवर्सिटीकी स्थापना पर प्रसन्नता प्रकट की गई और उसके संचालकोंसे आग्रह किया गया कि हिन्दूधर्मके समान जैनधर्मकी शिक्षाका भी वे प्रबन्ध करें । इसी प्रकारका एक प्रस्ताव बम्बई प्रान्तिक सभा के अधिवेशनमें भी पास हुआ है । आशा है कि इस ओर ध्यान दिया जायगा । १५वाँ प्रस्ताव जैनों की संख्यावृद्धि के सम्बन्ध में था । घटती हुई संख्याको बढ़ाने के लिए पाँच उपाय बतलाये गये - १ जिन लोगोंने अपना असली धर्म छोड़कर अन्य धर्म स्वीकार कर लिया हो उन्हें फिरसे जैनधर्म में लानेका प्रयत्न करना, २ जैनधर्म में रुचि रखनेवाले उच्चवर्णके आर्यों को साधुमहाशयोंकी सम्मति से जैनधर्ममें दाखिल करनेका यत्न करना, ३ आरोग्यविद्या के निय मोंका ज्ञान जैनसमाजमें फैलाना, ४ सघन वस्तीवाले बड़े शहरोंमें गरीब और साधारण स्थिति के लोगोंके लिए कम किरायके हवादार मकान और कोठरियाँ बनाने के लिए जैनधनिकोंको प्रेरणा करना । कान्फरेंसने अपने For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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