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________________ SHITTALALIMITALITILALJHALALIHINium विविध प्रसङ्ग। २४७ इससे वे लोग सभाके लाभोंसे वंचित रह जाते अपनेको भाग्यशाली समझते हैं, उस ज्ञान और हैं जो धनहीन हैं अथवा उपदेशको मूल्य देकर धर्मके ग्रन्थोंको अन्धेरेमें डाल रखनेमें हमें जरा लेने योग्य अभिरुचि नहीं रखते हैं । शिक्षा भी संकोच नहीं होता है । यह बहुत ही शोकऔर समाजोन्नतिके विचारोंको हम जितना की बात है । पुस्तकोंकी रक्षा और प्रचारके लिए सुलभ और सहज कर सकें उतना करना चाहिए। तो हमें धन नहीं मिलता; परन्तु ज्योनारोंके लिए, दूसरी विशेषता यह देखी कि धनी और पुराने ब्याह शादियों के जुलूसोंके लिए और निरर्थक धाख़यालके लोगों के साथ अनेक ग्रेज्युएट-वकील, र्मिक मुकद्दमे लड़नेके लिए रुपयोंकी कभी कमी बैरिस्टर, सालीसिटर, डाक्टर काम करते थे। नहीं पड़ती ! “ समाज-संगठनके विषयमें आपने हमारे दिगम्बर समाजमें यह बात नहीं है। कहा-" हमारी वर्तमान सामाजिक रचना ऐसी है हमारे यहाँ पण्डितों और बाबुओं तथा धनियोंमें कि हम धार्मिक और आर्थिक उन्नति करनेके लिए इतना मतभेद तथा मतासहिष्णुता है कि वे बिना चाहे जितना प्रयत्न करें तो भी अच्छी स्थिति लड़े-झगड़े मिलकर काम कर ही नहीं सकते। प्राप्त नहीं कर सकते; क्योंकि हम अपने धर्मके हमारे यहाँ कट्टरता ज्यादा है और हमारी सिद्धान्तोंके और समाजरचनाके विरुद्ध छोटी जनता नवीन सुधारके विचारोंसे बहुत ही अन- छोटी जातियों और उपजातियोंमें बँट गये हैं भिज्ञ है । साथ ही हमारे यहाँ धर्मतत्त्वोंके जान- और इससे एक साथ काम करनेकी शक्ति घटती नेकी डीग हाँकनेवाले अर्द्धदग्ध लोग बहुत हैं जाती है । अनेक बातोंमें हमारे विचार भी जो हर जगह धर्मके डब जानेका रोरा मचानेके संकुचित होते जाते हैं और समाजबल कम होता लिए तैयार रहते हैं । सभापतिका आसन बड़ौ- जाता है । इससे जब हम सारे जैनसमाजके दाके डाक्टर श्रीयुक्त बालाभाई मगनलाल प्रश्नोंको हाथमें लेना चाहते हैं, तब हमारे कार्यनाणावटीने सुशोभित किया था। आप बडोदा में तरह तरहके विघ्न आ पड़ते हैं । गत पचास महाराजके खास डाक्टर हैं और देशोपकारके वर्षके इतिहाससे मालूम होता है कि हमारी जुदी कामोंमें हमेशा योग दिया करते हैं। जुदी जातियाँ परस्पर मिलती तो नहीं हैं, उलटी १४ सभापतिके व्याख्यानकी कुछ उपजातियाँ बढ़ती जाती हैं, और तड़ें पड़ती जाती हैं ! जैनजातिको छोड़कर अन्य जातिबातें। योंके साथका सम्बन्ध कम होता जाता है और डाक्टर साहबका व्याख्यान खासा था। पुस्तको- जैनधर्मका पालन करनेवाली एक ही जातिकी द्धारके विषयमें कहते हुए आप बोले- फिजलके अन्तर्जातियोंके साथका सम्बन्ध भी घटता जाता मुकद्दमें लड़नेमें, जैनधर्मकी झूठी प्रभावना प्रकट है । अर्थात् एक ही जातिके जुदा जुदा प्रदेशोंमें करनेमें और जाति-रिवाजोंकी खर्चीली सेवा रहनेवाले लोगोंका सम्बन्ध वर्तमान डाँक, रेल, तार बजाने में हमारा जैनसमाज प्रति वर्ष लाखों रुपया आदिके उत्तम साधन मिलने पर भी बढ़नेके बदले खर्च कर डालता है; परन्तु जिस ज्ञान के लिए संकुचित होता जाता है । व्यवहारका क्षेत्र इस हम अभिमान करते हैं, जिस धर्मकी प्राप्तिके तरह संकीर्ण होनेके कारण कन्याविक्रय, वरविकारण हम अपने जन्मको सार्थक मानते हैं और क्रय, बाल्यविवाह, वृद्धविबाह आदि हानिभगवान महावीर स्वामीके अनुयार्य कहलाने में कारक रिवाजोंको उत्तेजन मिला है। इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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