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________________ SATURALLITIHARIm miILLIOLLECTRICITHARATARA + जैनधर्म और जैनजातिके भविष्यपर एक दृष्टि । PRATYETIMETHEmmitmITTTTTTTTTT T TTTTTTTTTES १८३ समानी हो गये हैं, परन्तु प्रश्न-वास्तावक अधिक साहसके कार्य सरलतापूर्वक कर प्रश्न-यह है कि क्यों हो गये ? कारण ढूँढ सकता है । इस बातके लिए आर्यसमाजलेनेमें कोई कठिनाई नहीं । यदि हम अपने की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। और ऐबोंको छुपाना न चाहें तो कहना होगा कि यदि हम भारतवासी यह न मानें कि उत्त इसका कारण यह है कि जैनोंमें सुधार रीय भारतमें जो कुछ सामाजिक और और उन्नतिका मार्ग सर्वथा बंद है। मनुष्य शिक्षासम्बन्धी कार्य देख पड़ते हैं वे सब समाजका भलाकर भाइयोंको उन्नत करनेकी प्रायः इन्हीं उत्साही आर्यसमाजियोंके अभिलाषाको सन्तुष्ट करनेके जो १००० कारण हैं तो अवश्य हम कृतघ्नता सूचित वर्ष पहलेके उपाय हैं उन्हें छोड़कर आप करेंगे । जैनोंके आर्यसमाजी होनेका सचसामाजिक सुधार शिक्षणसम्बन्धी कार्य मुच यही वास्तविक कारण है । इस आदि चाहे जो कार्य करनेको उद्यत होजा- बीसवीं शताब्दिमें धर्मकी परिभाषामें कुछ इए, जैनसमाज आपके कार्यको अच्छा अंतर हो गया है ! मातृभूमि, मनुष्य समाजनहीं समझेगा और पग पग पर आपके की सेवा और आत्मत्यागहीको आजकल मार्गमें विघ्न उपस्थित करना अपना न्याय, सिद्धान्त, संसारकी उत्पत्ति, स्थिति धर्म समझेगा । एक नवयुवक अपरिमित और नाश इत्यादिके ज्ञान, और पूजा, यज्ञ उत्साहसे पूर्ण होकर अपने भाइ- जप आदि बाह्य आडम्बरोंकी अपेक्षा अधिक योंके लिए, अपनी मातृ-भूमिके अर्थ, भारत- महत्त्व दियाजाता है। यही नवयुवकोंका की नीच जातियोंके उत्थानके कार्यमें आदर्श धर्म है । यदि जैनजाति चाहती है अपना जीवन समर्पण कर देना चाहता है कि उसका यह बहुमूल्य अंश, यह उत्साह सहसा समस्त जैन जाति उसके विरुद्ध स- और जीवनसे परिपूर्ण युवक-मंडल उसे छोड़शस्त्र आ उपस्थित होती है। तब उसके कर न चला जाय, तो उसे उचित है कि वह लिए और कोई उपाय बच नहीं रहता सिवाय भी समयानुकूल कार्यको उत्तेजना दे, और वह इसके कि वह जैन जातिको अंतिम प्रणाम भी आधुनिक ढंगपर शिक्षाप्रचारकी संस्थाकर किसी ऐसे समाजमें जा मिले जहाँ उ- ये संगठित करे । फिर वह निश्चिन्त होकर सकी उच्चतम आशायें और उच्चतम बैठ बैठे; कोई नवयुवक कभी यह बात स्वप्नमें विचार अधिक सरलतासे फलीभूत हो सकें भी न सोचेगा कि मैं इस श्रेष्ठ धर्मको त्याग और इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कर किसी दूसरे मतकी शरण लूँ । इटावेकी तत्त्व-प्रकाशिनी सभाने यह कार्य प्रारम्भ कि आर्यसमाज ऐसा ही समाज है-उसमें किया है किन्तु अभी इस ओर बहुत कुछ सम्मिलित होकर वह यही नहीं इनसे भी करना बाकी है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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