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________________ AAITITIONALAIMAILIMILAIILD विविध प्रसङ्ग । Mmmmmumtutifuinfinition २३७ स्वजनका तुझसे न भला हुआ, कर सका कुछ काम न जातिका। अहह ! पेट भरा पड़ पीजरे, स्व-पुरुषार्थ विनष्ट किया सभी !! (३९) मिल नहीं सकता निज जातिस, नहिं मिटा सकता मनकी व्यथा। परम सुन्दर कुंजनिकुंजमेंन दिखला सकता, अपनी छटा। (४०) अति मनोज्ञ छटा वन-कुंजकी, स्वजन-मित्र-सुहृज्जनमें स्थिति। वह विचार, सुकर्म, स्वतंत्रता, सब हुए सपना तव हेतु हैं। (४१) सुन गिरा मम क्या इस चंचुसे, . लग गया शुक ! पंजर तोड़ने । विफल ही यह यत्न नहीं सखे ! विहग! चंचु-विघातक भी बड़ा। (४२) शुक ! न रो, धर धीर, सुचित्त हो, न कर शांक, लगा मन योगमें। कर भला जगका, भज कृष्ण' को, रह सदा परमारथमें रँगा। (४३) समय पाकर यो भगवानकी, विहग ! तू प्रियता अति पायगा, सकल बंधनसे छुट जायगा, सब कहीं सुख चैन उड़ायगा। Rarriantarrantsartan विविध प्रसङ्ग। MEEMSELSEISEMISEvere १ जाली जैन-ग्रन्थ । प्रत्येक धर्म और सम्प्रदायमें बीसों ग्रन्थ ऐसे मिलते हैं, जिन्हें जाली कह सकते हैं; जो उस सम्प्रदायके किसी प्रसिद्ध पुरुषके नामसे प्रसिद्ध किये गये हैं और इस कारण सर्वसाधारण लोग उन्हें मानने लगे हैं। उदाहरणके लिए हिन्दुओंके 'भविष्यत्पुराण' का उल्लेख किया जा सकता है । यह व्यासजीका बनाया हुआ कह लाता है; परन्तु इसमें अभी अँगरेजी राज्यतकका वर्णन लिखा हुआ है ! यदि कोई शंका करे कि व्यासजीकी रचनामें अँगरेजी राज्यके लार्डीका वर्णन कहाँसे आया ? तो पौराणिक लोग उत्तर देते हैं कि व्यासजी सर्वदर्शी थे-उनके ज्ञानमें ये सब घटनायें पहले ही झलक गई थीं ! पाठक यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि जैनधर्ममें-दिगम्बरजैनसम्प्रदायमें भी ऐसे कई ग्रन्थ हैं जिन्हें जाली कह सकते हैं और जो प्राचीन आचार्योंके नामसे उनके बहुत पीछे गढ़े गये हैं । ऐसे एक दो ग्रन्थोंकी चर्चा जैनहितैषीमें हो चुकी है । अब ऐसे एक और भी प्रन्थका पता लगा है जिसका नाम 'भद्रबाहुसंहिता' है। यह अन्तिम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहु स्वामीकाआजसे लगभग २२०० वर्ष पहलेका-रचा हुआ समझा जाता है ! बहुतसे श्रद्धालु सज्जन इसे बड़े ही महत्त्वकी चीज समझते हैं; परन्तु श्रीयुत बाबू जुगलकिशोर के पत्रसे मालूम हुआ कि यह ग्रन्थ विक्रमकी तेरहवीं शताब्दिके बादका बना हुआ है ! वे बहुत ही जल्दी इसकी एक विस्तृत समालोचना प्रकाशित करेंगे और उसमें बतलायँगे कि उक्त ग्रन्थ जाली क्यों है और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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