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Imammu
जैनहितैषी।
(२४) विविध नीति कला पढ़ते हुए ,
शुक! कभी यह भी प्रभुसे पढ़ा,। "सुखमयी सब भाँति स्वतंत्रता, सकल दुःखभरी परतंत्रता।"
(२५) निपुणतायुत हो कुछ सोच तो,
शकुन ! है सुख भी कितना तुझे। यदि यही सुख है परतंत्रता, __ जगतमें फिर है कह दुःख क्या ?
विभव है कुछ ही दिनके लिए,
स्थिर नहीं रहती शुक ! ये कभी। कमलिनी-दलके जल-बिन्दु क्यापवनके चलते स्थिर हैं रहे ?
(२७) निकल जाय नहीं करसे कहीं, __ हृदयमें दुख पाकर तू कभी। यह विचार सदा धर चित्तमें, कतरता प्रभु है तव पक्षको !
(२८) यह मनोरम सुन्दर भाजन,
शुक ! तभीतक है मिलता तुझे, सुमधुर-स्वरसे जबलों गिरा, श्रवणमें प्रभुके तव आरही।
(२९) हृदय-वल्लभ, जीवनप्राण तू ,
विहग ! तू जिसका सिरमौर है। कुछ विचार वही सुपतिव्रता, तव शुकी कितना दुख पारही।
(३०) अति विषाद भरी जननी तव,
सतत दुर्बल है शुक ! होरही। धर महा आंभमान परान्नका, स्मरण भी करता उसको न तू।
(३१) सुमतिकी मतिके प्रतिकूल जो,
हृदयको लगता अतिशूल जो, जब यही सुख है, तब, दुःखकाबस अभाव शुकोत्तम ! हो लिया।
(३२) शक : सवर्ण-सुशोभित पींजरा. ___ मत विचार इसे प्रिय तू कभी । समझ तू इसको मुख ब्यालका, __ सकल-वस्तु-विनाशक कालका।
(३३) . जनक पूज्य कहाँ ? जननी कहाँ ? __ सुहृदवृन्द कहाँ ? गृह है कहाँ ? कि जिनसे तव जन्म हुआ, तथासुख मिला तुझको अति बाल्यमें ।
(३४) स्वजन आदि जिसे मिल भोगते,
विभव हैं कहते उसको सुधी। रह जुदा सबसे शुक भोगता, विभव नाम कहीं इसका नहीं।
(३५) अब विचार किये फल क्या ? नहीं।
स्ववश तू, सब भाँति बँधा हुआ। न सहता विधि भी परतंत्रकी, इसप्रकार विचार-परम्परा ।
(३६) स्वजनसे तुझको जिस करने,
कर जुदा शुक! बंद किया यहाँ। अशन तू उसके करका दिया, कर रहा हह भूल सभी कथा।
(३७) कुपित होकर, या, कर भूल जो,
न तुझको जल भोजन दे प्रभु । मर रहे शुक ! तो पिंजरे पड़ा,
खबर भी तब हो जगकों नहीं।
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