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पराधीन तीतेके प्रति ।
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(१७) विभव सुन्दर पाकर ये यहाँ,
विहगराज ! रहो सुख भोगते । मम कुतूहलके वश हो मन, वचन यों तुमको कहला रहा ।
(१८) पर विचार करें यदि सूक्ष्म तो,
स्थिति यही तव तप्त करे हम। न कुछ भी अफसोस ! स्वतंत्र तू, न इसका कुछ बोध रहा तुझे !
(१०) भटकते फिरना वनमें कहाँ ?
सुख कहाँ यह जो मिलता यहाँ ? सुकृतसे तुझको यह है मिला, न जगमें तुझसा पर धन्य है।
(११) जगतमें बरसे जल या नहीं,
रुचिर शस्य फले अथवा नहीं। पर अनुग्रहसे तव नाथके, सुख नहीं कम हो अणु मात्र भी।
(१२) विपिनमें दुसरे खगवृन्द ये,
कर रहे तन तोड़ परिश्रम। तदपि है मिलता इनको नहीं, नियत, वक्त हुए पर भोजन ।
(१३) नियत काल हुए, हर रोज ये
शुक ! तुझे मिलते फल मिष्ट हैं। चख रहा इनको धर चंचुमें: तज रहा कुछ झूठनमें यहाँ ।
(१४) शकुनि ! 'पेट भरे' इसके लिए
श्रम हजार करें जग जीव य बिन परिश्रम ही तुझको यहाँ, अयि कृतार्थ : मिला सब भोज्य है।
(१५) न तुझको श्रम हो जगमें कहीं,
न उड़ना, चलना, फिरना पड़े। इस लिए प्रभु है तव काटता,
युगलपंख दयालुशिरोमणि ।
कनकके जिस पंजरमें यहाँ,
शकुनराज ! सखे ! तुम बंद हो । कर नहीं सकता वह साम्य है, विपिनके तरु-कोटरकी कभी ।
(२०) रख पदद्वय कांचन-यष्टिपै,
हँस रहा शुक ! क्या खगवृन्दको। मृदुल पल्लव शोभित-बेलकी यह कहीं सम हो सकती नहीं।
(२१) जरठता जब हे शुक! आयगी,
मधुर-भाषण-शक्ति नसायगी। तब विपत्ति नितान्त सतायगी, कि जिसकी सुध भी दुख दे रही।
(२२) अब बिलोक रहे अति प्रेमसे. __ सुन रहे तव हैं वचनावली । फिर यही सबके सब मानव, शकुनि ! दानवसे बन जाँयगे।
(२३) तव समीप कभी नहीं आयेंगे,
वचन यो अति तीक्ष्ण सुनायँगे ! "न इसको कुछ बोध, न कामका,
जरठ पिंजड़ है यह चामका !"
चरणमें प्रभुने तव डाल दी, __ कनककी अति सुन्दर पैजनी। जब कभी उठता पद है तव, रणन है करती आति सुन्दर ।
१ हे पक्षिराज । २ बुढ़ापा ।
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