SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३४ ALBRITAILORCALLL जैनहितैषी। ष्कारके संबंधी कोई बात प्रगट न करनेके लिए प्रतिज्ञा कराई गई थी । परन्तु इतनी सावधानी रखने पर भी सौभाग्यवश फरासीसियोंको इनकी प्रणालीका पता लग गया । १९१२ ई० में एक जेपेलियनको लाचार होकर फ्रांसके लूभ्याँ नामक स्थानमें उतरना पड़ा और उस समय वहाँके व्योमयानविद्याके जाननेवाले लोगोंने उसे रोक कर २४ घंटे तक उसके प्रत्येक अंग प्रत्यंग और कल पुरजेकी बारीकीसे जाँच कर डाली । तथापि इस समय जर्मनी ही आकाशयानोंकी उन्नतिमें सबसे आगे है । एक नये किस्मके बलिष्ट ट्राइ- प्लेनके बननेका सम्बाद अभी हाल ही जर्मनीसे . आया है *। कुछ मनोहर गर्दन मोड़ तू, सुभग ! देख रहा शुभ दृष्टिसे। नच रहा कुछ बोल रहा गिरा, छबि रहा दिखला कुछ पाँखकी । (४) प्रिय मनोहर पाँख हरी हरी, अरुण है अति उत्तम चोंच भी। शुक ! मनोहर श्याम लकीर है, कुछ ललास लिये तव कंठमें। इधर भोजनको फल हैं नये, उधर है जल निर्मल पानको। शुक ! तुझे यह आसन है मिला, महलमें इस नौ-लख बागके । पराधीन तोतेके प्रति। कर रहे मलको कुछ दूर हैं, कुछ खगेश ! तुझे नहला रहे। न कितने प्रिय सेवक-सेविका, लग रहे जन यों तव दास्यमें । ( कवि, श्रीयुत पं० गिरिधर शर्मा ।) ( मुमुक्षु भारतीय बन्धुओंको सादर समर्पित । विभव जो मिलते सबको नहीं, सब वे तुझको यहाँ, महिप भी जिसको कर दें, वहीमुख नृपेश्वर देखरहा तव । विविध सुन्दर रत्न जड़ा हुआ, कनकका शुक! है यह पीजरा। मलिनता मनकी कर दूर क्याहृदयमें भरता तव मोद है। (२) यह मनोहर कांचन-यष्टिका; जड़ रहीं मणियाँ जिसमें भलीं। चरण तू रखके इस पै सदा, न कितना मनमें खुश हो रहा। अति कृतज्ञ विहङ्गम तू सही, कि नयनोज्वल पाकर नाथका। मृदु गिरा पहले पढ़ ली वही, कह रहा प्रभुको मुद दे रहा। शुक ! बड़ी कितनी यह बात है, कि इस पंजरमें रहते हुए- । भय नहीं तुझको कुछ बाज़का, न चिर शत्रु विशाल विड़ालका। * बंगला प्रवासीके लेखका अनुवाद । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy