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________________ SamamARTAIMIMARITALITIATIOmmamamamamammam जैनधर्म और जैनजातिके भविष्यपर एक दृष्टि । । aliTETTEERTILITT u lf A ITRINITITITIHITITMPETI गणना तो भारतवर्षकी सबसे अधिक धनाढ्य पंडितोंको अपने कर्तव्यका ध्यान आवेगा ? जातियोंमें है। मद्यपान और मांसभक्षणकी क्या आधुनिक बाबूमंडल इस जीवन मरणके बुरी आदतोंसे स्वास्थ्यको जो हानि होती प्रश्नको उपेक्षाकी दृष्टिसे देखना छोड़ देगा ? है उससे भी वह मुक्त है । अतः कोई कारण अनाद्रि जैनधर्मका अतीत गौरव, उसके नहीं देख पड़ता कि जिससे जैनोंकी दशा बहुमूल्य सिद्धान्त और जैनजातिकी धनाढ्यभी भारतीय निर्धन कृषकोंकीसी रहे अथवा ता ये सब बाते कुछ भी काम न आवेगी । उन्हें भी उन्हीं कठिनाइयोंका सामना करना इनके द्वारा नाश नहीं रोका जा सकता। पड़े जिनके कारण बेचारे कृषकोंको कालके यदि उनके हृदयोंमें इस पवित्र धर्मकी उन्न. गालमें जाना पड़ता है। कोई कारण नहीं तिके लिए प्रेम और उत्साह बाकी है, यदि कि उनकी संख्याकी वृद्धि केवल औसत उन्हें इस बातका कुछ भी ध्यान है कि उन मात्रही हो और औसतसे बहुत अधिक न हो। महान् आचार्योंकी कृतियाँ और उपदेश इस प्रकार विचार करनेपर हमारी क्षति और संसारमें स्थित रहकर सदा मनुष्योंका कल्याण भी अधिक मालूम होती है और जिस करते रहें, यदि उन्हें कभी यह इच्छा १८.३ प्रतिशतकी घटीसे हम घबडा उठे होती है कि पृथ्वीपरसे जैनजातिका नाम न थे वह वास्तवमें २५ प्रतिशत होकर हमारे मिट जाय, तो समय आगया है कि जब वे रोंगटे खड़े कर देगी; किन्तु इस डरसे इस इस प्रश्नपर विचार कर ऐसे उपायोंका ढूँढना विचारकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि ही अपना परम धर्म समझें कि जिनसे हमारा मरणोन्मुख जातिको सर्वनाशसे बचाना हमें ह्रास रुक जाय और हम मृत्यके पथसे • अभीष्ट है तो इन बातोंको ध्यानपूर्वक विचा- हटकर पुनः सजीवताकी ओर अग्रसर हो रकर भलीभाँति समझ लेना होगा । दश सकें । मैं दृढतापूर्वक कह सकता हूँ कि इस वर्षमें जैनजातिका चतर्थाश नाश होगया समय मंदिर बनवानेमें, पूजावत आदि कर और वह भी इस हिसाबसे । यदि पिछली नेमें, और शास्त्रोक्त कठिनसे कठिन तपस्यामनुष्यगणनाओंमें जैनजातिकी संख्या वास्त- ओंके करनेमें उतना धर्म नहीं है जितना विक होती तो न जाने यह घटी कितनी इस नाशको रोकनेके उपाय करनेमें है। हो जाती ! क्या जैनजातिके मुखिया लोग यही नहीं मैं तो यहाँतक कहूँगा कि जो इस ओर ध्यान देंगे ? क्या जैनधर्म पर इस ओर कुछ कार्य कर सकते हैं किन्तु न्योछावर हो जानेकी डींग मारनेवाले सेठ करनेमें आलस्य करते हैं, अथवा शास्त्रोंकी लोगोंकी आँखें खुलेंगी ? क्या भोले भाले आज्ञाओंका मिथ्या बहाना बनाकर उन्नतिके समाजसे आदर सत्कार और भेंटके लोलुपी कार्योंसे पीछे हटते हैं उनकी पूजामें, उनकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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