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________________ १८० Saammammmmmm mmmm जैनहितैषी है- तो यह समय और भी कम हो जायगा। परन्तु हम बहुत बड़ी भूल करेंगे यदि किन्तु इस विचारके द्वारा हमें अपने आशंका- हम यह समझें कि जैनोंको भारतकी औसतपूर्ण भविष्यको अधिक भयानक बनानेकी के अनुसार प्रतिशत ११.८ ही बढ़ना आवश्यकता नहीं। चाहिए था ! भारतमें प्रत्येक पाँच मनुष्यों मेंसे चार कृषिसे पेट भरते हैं और भारइस प्रश्नपर हम दूसरे प्रकारसे भी विचार रतीय कृषकोंकी दशा कैसी है इस भयंकर कर सकते हैं । यह घटी वास्तविक नहीं दुःखपूर्ण कथाके कहनेका न हमें साहस है। क्योंकि इसके हिसाबमें यह समझा , होता है और न वह किसीसे छिपी है । गया है कि भारतकी जनसंख्या बढ़ी नहीं, ' दुर्भिक्षने–प्रति वर्षके दुर्भिक्षने-उन्हें सर्वथा अथवा यों कहिए कि यदि जैनोंकी संख्या निर्जीव कर रक्खा है और इसके अतिरिक्त १९११ में भी वही होती जो १९०१ में उनकी निर्धनताके, उनके भूखों मरनेके थी तो उस हिसाबके अनुसार कोई घटी न अनेक कारण हैं जिन्हें प्रायः सब ही विचारमालूम पड़ती; किन्तु यह ठीक नहीं । क्यों कि जब स्वास्थ्यका सरकारको और जनता.. शील भारतवासी जानते हैं, उनके उल्लेखको अधिक ध्यान होने लगा है, जब शान्ति - की आवश्यकता नहीं । इतना ही कह देना अधिक अधिक फैल रही है, जब शिक्षा ' बस होगा कि जब लाखों करोड़ों उनमें ऐसे हैं कि जिन्हें यह भी ज्ञान नहीं कि दिनमें का प्रचार उत्तरोत्तर अधिक वेगसे हो रहा है है, जब व्यापार आदिमें दिनों दिन उन्नति ? र दूसरी बार भोजन करना किसे कहते हैं तो होती जाती है और इस कारण जनताकी उनकी संख्याकी वृद्धि अधिक कैसे होस कती है ? अतः यह विचारना सर्वथा युक्तिआर्थिक दशा भी उन्नतिके पथ पर है तो का यह हो नहीं सकता कि जनसंख्या न संगत जान पड़ता है कि कृषकोंको छोड़ ' अन्य भारतवासियोंकी संख्या बहुत अबढ़े-और हम देखते भी हैं कि १९०११९११ तक समस्त भारतवर्षकी जनसंख्या धिक बढ़ी है। किन्तु सबका औसत लगानेपर सैकड़ा पीछे ११:८ बढ़गई है । क्या । या किसानोंकी बुरी दशाके कारण ११.८ जैनोंकी संख्या भी ११.८ प्रति शत न प्रतिशत ही रह गई है। . बढनी चाहिए थी ? किन्तु वे तो ६.५ किन्तु जैनाजति तो अधिकतर व्यापार प्रतिशत घट गये । अतः स्पष्ट है कि जैनों- ही करती है। उस पर अच्छी और बरी की कमी वास्तवमें १८.३ प्रतिशत हुई और फसलका उतना अधिक असर नहीं होता, सो भी जब कि पिछले वर्षों में जो जैन हिन्दू दुर्भिक्षसे भी वह अधिक पीडित नहीं होती, लिखे गये वे हिसाबमें न जोडे जायँ। वह निर्धन और भूखी भी नहीं है । उसकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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